संस्कृत साहित्य का इतिहास | Sanskrit Sahitya Ka Itihas
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
458
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका ७
उसका कथन है कि--
सस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राघान्यम्हंत ,
तत्रापि सस्छृता तावद दूर्विंदग्धहूदि स्थिता ॥
बालानामपि सद्बोघकारिणी कणपेशला,
तथापि प्राकृता भाषा न तेषामपि भासते ॥
उपमितिभावप्रपचकथा १-५१, ५२,
६ कश्मीरी कवि बिल्हण (११ वी शतात्दी ई०) का कथन है कि कश्मीरी
स्त्रियां सस्कृत, प्राकृत और कश्मीर की भाषा को ठीक समझती थी । १७४
सस्कृत वैयाकरणो के ग्रन्थो ने इस भाषा के दुरुपयोग को अवश्य रोका,
परन्तु इसके द्वारा भाषा को निश्चल बना दिया। इसका परिणाम यह हुआ
कि पाणिनि के समय मे संस्कृत ओर प्राकृत मे जो अन्तर था, वह दिन प्रति-
दिन वठता गया । कुष काल पश्चात् जब व्याकरण के नियमो से बद्ध कवियों
ने इसको कृतिम रूप देना प्रारम्भ किया और अ्रप्रचलित प्रयोगो को स्थान
देना प्रारम्म किया, तवसे यह अन्तर ओर बढ गया | ज्यो-ज्यो प्राकृत बढ़ती
गई, वोलचाल के रूप मे सस्कृेत माषा का प्रयोग कम होता गया श्रौर धीरे
धीरे समाज पर उसका परमाव कम हो गया । साहित्यिको ने सस्कृत माषा की
इस श्रवनति की श्रोर ध्यान दिया और प्रयत्न किया कि यह् पुनः उसी स्थिति
को प्राप्त हो । हिंतोपदेश और पंचतंत्र इसी प्रकार के प्रयत्नो के परिणाम हैँ 1
घार्मिक कृत्यो के लिए छोटे 'प्रयोग' नामक ग्रन्थ भी इसी उद्देश्य से लिखे गए
थे। इन प्रयत्नो के द्वारा यद्यपि पूर्ण सफलता नही मिली, तथापि इनके द्वारा
अवनति की गति कम झवश्य हो गई।
प्राजकलं सस्कृत को मातृभाषा कहा जाता है । इस विषय मे यह स्मरण
रखना चाहिए कि यह सपूर्ण भारतवर्ष या किसी एक प्रदेश की दैनिक वोल-
चाल की भाषा नही थी और इस श्र मे कभी भी जीवित भाषा नही थी,
भ्रपितु यह् उच्च श्रेणी के व्यक्तियो की ही वोलचाच की भाषा थी । किसी भी
१. विक्रमाकदेवचरित १८-६
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