जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व | Jain Dharashan Ke Moulik Tatav Vol 1ac 3996
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
532
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२) जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
आज हम अवसपिंणी के पांचवें पर्ब--दुःघमा में जी रहे हैं | हमारे युग का
जीवन-क्रम एकान्त-सुषमा से शुरू होता है। उस समय भूमि ल्तिग्ध थी। नर,
गन्ध, रस और स्पर्श अत्यन्त मनोश थे | मिट्टी का मिठास आज की चीनी
से अनन्त-गुणा अधिक था। कर्म-भूमि थी किन्तु अभी कर्म-युग का प्रवर्तन
नहीं हुआ था | पदार्थ अति स्विख्ख थे, इसलिए, उस जमाने के लोग तीन दिन
से थोड़ी-सी वनस्पति खाते और तृत्र हो जाते । खाद्य पदार्थ अ्रप्राकृतिक नहीं
थे | विकार बहुत कम थे, इसलिए उनका जीवन-काल बहुत लम्बा होता था |
নবীন পয तक जीते थे। अकाल मृत्यु कमी नहीं होती थी। वातावरण
की अल्यन्त अनुकूलता थी। उनका शरीर तीन कोस ऊँचा होता था। वै
खभाव से शान्त और सनन््तुष्ट होते थे। यह चार कोड सागर का एकान्त
सुखमय काल-विमाग वीत गया | तीन कोड़ाकोड् सागर का दूसरा सुखमय
भाग शुरू हुआ | इसमें भोजन दो दिनसे होने लगा। जीवन-काल दौ
ঘকষ का हो गया और शरीर की ऊझँचाई दो कोस की रह गई । इनकी कमी
का कारण था भूमि और पदार्थों की छ्तिग्घता की कमी | काल और आगे बढ़ा |
तीसरे सुख-दुखमय काल-विभाग में और कमी आ गई | एक दिन से भोजन
होने लगा। जीवन का काल-मान एक पल्य हो गया और शरीर की ऊँचाई
एक कोस की हो गई। इस युग की काल-मर्यादा थी एक कोड़ाकोड़ मागर |
इसके अन्तिम चरण में पदार्थों की स्विग्पता में बहुत कमी हुईं। सहज नियमन
टूटने लगे, तब कृत्रिम व्यवस्था आई और इसी दौरान में कुलकर-व्यवस्था
को जन्म मिला ।
यह कर्म-युग के शैेशव-काल की कहानी है। समाज संगठन अभी हुआ
नहीं था । योगलिक्र व्यवस्था चल रही थी, एक जोड़ा ही सब कुछ होता था |
न कुल था, न वर्ग और न जाति | समाज और राज्य की वात बहुत दूर थी |
जन-संख्या कम थी | माता-पिता की मौत से दो या तीन मास पहले एक युगछ
जन्म लेता, वही दम्पति होता | विबाह-संस्था का उदय नहीं हुआ था | जीवन
की आवश्यकताएं. बहुत सीमित थीं। न खेती होती थी, न कपड़ा बनता था
और न मकान बनते थे, उनके भोजन, वस्त्र और निवास के साधन कल्य-
वृक्ष थे, '४गार और आमोद-ग्रमोद, विद्या, कला और विज्ञान का कोई नाम
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