ब्रज और ब्रज - यात्रा | Braj Aur Braj Yatra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
201
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
राम नारायण - Ram Narayan
No Information available about राम नारायण - Ram Narayan
सेठ गोविन्ददास - Seth Govinddas
No Information available about सेठ गोविन्ददास - Seth Govinddas
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ब्रजभुमि भर उसका नामकरण ७
झनुयायियों में गोपाल कृष्ण पैदा हुए, और इन्होंने सम्भवतः अपनी प्राचीन
परम्परा को स्मरण करके वेद-विहित मार्ग का निरोध करके इन्द्र-पूजा रोक दी,
और अपनी जातीय परम्परा में गोवद्धन-पूजा स्थापित की । वेदिकों भ्रौर कृष्ण
के संघर्ष की गज विधृता की कहानी में भी मिलती है। यज्ञ करने वाले ब्राह्मण
ने अपनी पत्नी को कृष्ण का सामान्य सत्कार भी करने से रोका था । कृष्ण के समय
में ब्रज के किसी क्षेत्र में नगरों का भी प्राबल्य हो उठा था, जिनके प्रधान कालिय नाग
को पराजित करके कृष्ण ने पलायन करने के लिए विवश किया ।
ब्रजभूमि में जेन और बौद्ध धर्म--तदनन्तर बौद्ध तथा जैन धर्मों की लहर
चली । जैन धर्म की दृष्टि से मथुरा का महत्त्व बहुत ग्रधिक है । बौद्धों से पहले यहाँ
जेन धमं जम गया, ऐसा प्रतीत होता है ।
बाद में बौद्ध धमं यहाँ श्राया। जेन धमं तथा बौद्ध धर्म के संदर्भों को
देखकर यह विदित होता है कि जन-धर्मी तो यहाँ के सभी प्रकार के निवासियों के
साथ बिना किसी संघर्ष के निवास करते रहे; क्योंकि जैन धमं के म्रंथों में यहाँ के
किसी भी निवासी से किसी प्रकार के संघर्ष का संकेत नहीं मिलता । मथुरा के प्रधान
निवासी इस काल में ब्राह्मण प्रतीत होते हैं । जैनों का ब्राह्मणों से कोई संघर्ष नहीं
हुआ, किन्तु बौद्ध-ग्रंथों और जैन-प्रंयों से विदित होता है कि बौद्धों का गडा जनों
से हुआ था। यह भंगड़ा एक स्तूप के ऊपर हुआ था। स्तूप 'देव-निमित' था, जिसका
श्रथं यह् लगाया जा सकता है कि यह बहुत पुराना था । जिस समय भगड़ा हुआ था,
उससे इतने काल पूर्व का बना हुआ यह स्तृप था कि उस समय तक उसके निर्माता
का ज्ञान किसी को नहीं था। यह दिव-स्तृप' 'रत्न-स्तूप' था। इस पुराने स्तृप पर
बौद्धों ने श्रधिकार जमाना चाहा, तभी जैन चेते और उन्होने कहा कि यहं जेन-स्तुप
है । इस संघर्ष में जेत विजयी हुए। कभी उस काल में रथ-यात्रा के पीछे भी जैन
और बौद्धों में कगड़ा हो गया था ।* वृहत्कल्पसूत्र भाषा में यह भी उल्लेख आया
बताते हैं कि मथुरा में जो नये गृह बनाये जाते थे उनके श्रालों में मंगलार्थ, आ्राहँत
प्रतिमा स्थापित की जाती थी, अन्यथा इन घरों के गिर जाने की शंका रहती थो ।
इससे मथुरा में किसी समय जैन धर्म के प्राबल्य की बात सिद्ध होती है । जैनियों
का चौरासी तीर्थ श्राज भी है। मथुरा में ही भ्रार्य स्कंदिल की भ्रध्यक्षता में जनों की
दूसरी परिषद् बुलायी गयी थी, जिसमें नष्ट होते हुए आगमों की वाचना की
पुनव्यंवस्था की गई थी ।
बौद्ध धमं की दृष्टि से भी मथुरा का महत्त्व कम नहीं था। भगवान् बुद्ध
स्वयं यहाँ ग्राये थे भर इसमें संदेह नहीं कि वे मथुरा से प्रसन्न भी नहीं हुए थे ।
अंगुत्तर निकाय में बताया गया है कि भगवान् बुद्ध को मथुरा में पाँच दोष मिले थे ।
किसी बौद्ध ग्रंथ में यह भी उल्लेख है कि मथुरा के यक्षों से ब्राह्मण परेशान थे । वे
भगवान् कै पास गये श्रौर उनसे श्रपना कष्ट कहा । यक्ष-तायक को भगवान् बुद्ध ने
अपने वश में कर लिया । उसने कहा कि यदि ये ब्राह्मण आपके लिए एक विहार
१. वृहत्कथा कोष ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...