ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद | Bramchari Shital Prasad

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Bramchari Shital Prasad  by ज्योति प्रसाद जैन - Jyoti Prasad Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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অভিল , भारतीय काँग्रेस के प्रायः सभी वाषिक अधिवेशनों. में वह उपस्थित रहे । जहां जाते, यह प्रयत्न. करते किं सार्वजनिक सभांगों में उनके व्याख्यान हों, जिससे अजैन जंनता भी उनकी लाभ उठा सके । उलके व्याख्यानों में साम्प्रदायिकता कौ गन्ध नहीं :होती थी । जनता के जीवन कमो धिक एवं सेत्रिक बनाने षर, उसे सादा, सगल, पत्य एवं अहिंसा प्रतिष्ठित और स्वदेशप्र मं से ओत--प्रोत बनाने पर वहु ही अधिक बल देते थे | ब्रहमचोरी जी देह-भागों से विरक्त, गृहत्यागी ब्रती ये। पारि भाषिक दृष्टि से भले ही वह मुनि या साधु नहीं कहुलाएं । किन्तु जनसाधरण उन्हें एक अच्छा जेन साधु मानकर ही उनका आदर एवं भक्ति करता था । वह भी अपने पद के लिए शास्त्र विष्ठित चर्चा एवं नियम संयम का पूरी दृढ़ता के साथ पालच करते थे । जिन धर्म एवं जिनवाणी पर उनकी पूर्ण आस्था थी, किन्तु उन्होंने कभी भी किसी अन्य में, पथ या सम्प्रदाय कौ अवमानना नहीं की । सवे-घमं समभाव के पोषण के लिए जेने्तर घर्मो का भी उन्होंने तुलनात्मक अध्ययन किया । ग्रुणियों के प्रति उनका अष्तम अनुराग था। स्वर गुरू गोपालदास जौ करेया का वहु बड़ा आदर करते थे । स्थितिपालकों ने अनेके वार उनका प्रबल विरोध किया, उनके कार्य में अनेक बाधाए डाली, धमकियां दी, किस्तु्‌ ब्रह्मचारी जी को वे क्षुव्ध न कर सके, उनके समभाव को विचलित न कर सके । ब्रह्मदारी जी को मान-सम्मान की चाह छ भी नहीं पाई थी। सामाजिक अभिनन्दनों, मानपत्रों उपाधियों आदि से वह सर्देव बचते थे । अपने लिए उन्होंने कभी किसी से कोई चाह या मांग नहीं की, न अपने किसी कुटुम्बी या रिश्तेदार के लिए ही, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में भी ) अपने नाम से कभी क्‌ सस्था स्थापित नहीं की, कही कहीं समाक्ष ने चाहा भी, किन्त्‌ उन्होंने ऐसा होने ही नहीं दिया। समाज के उस समभय के प्रायः सभो श्रीमानों से ब्रह्मचारी जी का सम्पक रहा, किन्तु उनमें से किसी को भी कभी कोई खुशामद या चापलूसौ नहीं की उनकी प्रश॑घह्तियां नहीं गायीं, उनके प्रभाव में आकर अपने विचारों में परिवर्तन भी वहीं विया, तथापि उनका सहज आदर प्राप्त किया) बम्बई के दानवीर सेठ माणिकचन्द जे० पी० तो उनके परम भक्त ( ११)




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