न्यायकुमुन्द चन्द्र भाग 1 | Nyaya Kumund Chandra Vol-I

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Nyaya Kumund Chandra Vol-I by महेंद्र कुमार न्यायशास्त्री - Mahendra Kumar Nyay Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फाक्ेकन यदि श्रीमान्‌ प्रेमीजो का अनुरोध न होता जिन्हें कि में अपने इन गिने दिगम्बर मित्रों में सबसे अधिक उदार विचार वाले, साम्प्रदायिक होते हुए भी असाम्प्रदायिक रृष्टिबाले तथा सथी लगन से दिगिम्बरीय साहित्य का उत्कप चाहने वाले समझता हूँ, और यदि न्यायकुमुदचन्द्र के प्रकाशन के साथ थोड़ा भी मेरा सम्बन्ध नहोता, तो मैं इस वक्त शायद ही कुछ लिखता। दिगम्बर-परम्परा के साथ मेरा तीस वष पहले अध्ययन के समय से ही, सम्बन्ध शुरू हुआ, जो बाह्य-आभ्यन्तर दोनों दृष्टि से उत्तरोत्तर घिस्तृत एवं घनिष्ठ होता गया है। इतने लंबे परिचय में साहित्यिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से दिगम्बर परम्परा के सम्बन्ध में आदर एवं अति तटस्थता के साथ जहाँ तक दो सका मैने कु अवलोकन एवं चिंतन किया है। मुझको दिगम्बरीय परम्परा की मध्यकालीन तथा उत्तरकालीन साहित्यिक प्रवृत्ति में एक विरोध सा नजर आया । नमस्करणीय स्वामी समंतभद्र से ठेकर वादिराज तक की साहित्य प्रवृत्ति देखिये और इसक बाद की साहित्यिक प्रवृत्ति देखिये । दानों का मिल्लान करन से अनेक विचार आते हैं। समंत्भद्र, अकलक्ठ आदि विद्वद्रप आचाय चा बनवासी रहे हां, या नगरवासी; फिर শী তল আলা के साहित्य को देखकर एक बात निर्विवाद रूप से माननी पड़ती है कि उन सों की साहित्यिक मनोवृत्ति बहुत ही उदार एवं संग्राहिणी रही । एसा न द्वोता तो वे बौद्ध और ब्राह्मण परम्परा की सब दाशनिक शाखाओं के सुलभ दुलेभ साहित्य का न तो अध्ययन ही करते और न उसके तत्त्वों पर भनुकूछ प्रतिकूल समालोचना-योग्य गंभोर चिंतन करके अपना साहित्य समृद्धतर बना पाते । यह कल्पना करना निराधार नहीं कि उन समथ आचर्यों ने अपने त्याग व दिगम्बरत्व को कायम रखने की चेष्टा करते हुए भी अपने आस पास ऐसे पुस्तक संग्रह किये, कराये कि जिनमें अपने सम्प्रदाय के समग्र साहित्य के अछावा बौद्ध और ब्राह्मण परंपरा के महत्त्वपृ्ण छोटे बड़े सभ ग्रन्थां का संचय करन का भरसक प्रयत्र हुआ | वे ऐसे संचय मात्र से भी संतुष्ट न रहते थे, पर उनके अध्ययन अध्यापन कार्य को अपना जीवन- क्रम बनाये हए थे । इसके विना उनके उपलभ्य ग्रन्थों में देखा जने वाला विचार-वैशद्य व दाशेनिक प्रथक्षरण संभव नदी हो सकता । वे उस विश्ञाल-राशि तत्कालीन भारतीय-साहित्य के चितन, मनन रूप दोहन मे स नवनीत जैसी अपनी क्ृतियों को बिना बनाये भी संतुष्ट न होते ये । यह स्थिति मध्यकाछ को रही । इसके वाद के समय में हम दूसरी ही मनोवृत्ति पाते हैं । करीब बारहवीं शताब्दी स छूकर २० वीं शताब्दी तक के दिगम्बरीय साहित्य की प्रवृत्ति देखने से जान पड़ता है कि इस युग में बह मनोक्त्ति बदल गई। अगर ऐसा न होता तो कोई कारण न था कि बारहवीं शताब्दा स लेकर अब तक जहाँ न्याय, वेदान्त, मोमांसा, अलंकार, व्याकरण आदि विषयक साहित्य का भारदतप में इतना अधिक, इतना व्यापक और इतना सूक्ष्म विचार व विकास हुआ, वहाँ दिगम्बर-परन्परा इससे विछकुछ अछूत-सी रहती। श्रीदष, गंगेश, पक्ष थर, मधुसूदन, अप्पयदीक्षित, जगन्नाथ आदि जैसे नवयुग प्रस्थापक ब्राह्मण विद्ानों के साद्वित्य से भरे हुए इस युग में द्गम्बर साहित्य का उससे विलकुछ अछूत रहना अपने पूवी चार्यो की मनोचृत्ति के विरुद्ध मनोवृत्ति का सुवरूत है । अगर बाद्रिज के बाद भी ` दिगस्बरपरम्परा की साहित्यिक मनावृत्ति पूर्वत्‌ रहती तो उसका साहित्य कुल्य और ही द्वोता ।




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