पूजांजलि | Punjajali
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
245
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[5४ ]
विशुद्धि पूवक जिनेन्ट प्रभू के चरणो में अनुराधक हो जाता
है तब उसकी उत्क्रष्ठ भक्ति अनीचा कही जाती है।
नेमिचन्द सिद्ांतचक्रबर्ति ने महान आगम शंथ गोम्मट
सार में आठ प्रकार की पज्ञा भक्ति का निर्देश त्या है यह
आठ प्रकार की भक्ति भावो की विशुद्धि ओर तन्मयता पर
आधारित है। इसमें पञअक भावो की विशद्धताके सौध मन
को यनेन के गुणाराधन मे लगाता है। मावो की स्थिति के
आधार पर दी इसके आठ भेद कहे गये हैं ।
जिनेन्ट्र प्रभू के दशनों की भावना साफार रुप मं चरि
ताथं होना प्रथम जिनेन्ट पजा है । भाव और प्रवृत्ति दोनों
का चर्तारथ होना ही पूजा की साकारता है। जिनेन्द्र भग-
चान के पादमल में पहुँचकर अष्टांग नमस्कार पवक त्रय
प्रदक्षिणा देना और स्तोत्राराधन करना द्वितीय प्रकार की
पञजा है प्रथम प्रकार की पजा में जितने शुभ कर्मों का आस्रव
होता है असंख्यातं गुणा शुभाश्रव द्वितीय प्रकार की पूजा मे
कहा है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर आगे आगे की प्जाओं मे पो
पीछे की पूजाओ की अपेक्षा असंख्यात असख्यात्त गुणा
शुभाश्रव होता हे ।
परिणामो की चिषुद्धि पूवकं जब पूजक के वीतराग
भाव पूजा करते समय जितने क्षण के लिए बनते ई उतने
उतने समय सवरपूवक पापकर्म की निजैरा भी होती है ।
अष्ट द्रव्य अर्थात् जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प नवेद्य, दीप, धप
फल को पवित्र जल से प्रक्षालित कर जिनेन्द्र प्रभू के मंगल
मय अभिषेक के बाद उनके पादमूल मे खड़े होकर भक्ति
पृथक पूजन करना ठृत्तीय प्रकार की पूजा है । एक बस्त
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