साहित्य तथा साहित्यकार | Sahitya Tatha Sahityakaar

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Sahitya Tatha Sahityakaar by देवराज उपाध्याय - Devraj Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साथ दारुण तथा लोमहर्षक खेल-खेला जाय । हम एक बार देखते हैं कि बह विपत्तियों का शिकार हुई, हमें उसके साथ सहानुभूति होती है । पर जब हम बार बार उसे विपत्तियों में पड़ते देखते हैं, उसने सुवर्शा का स्पर्श . किया नहीं कि मिट्टी बन गया, तब हममें एक मनोवेज्ञानिक ग्रौदासीन्य (72301701051091 0810 ) भ्रा जाता है। हम कहां तक सहातनु- भूति दें । यदि वह इसी के लिए बनी है तो हम क्‍या करें ऐसी मनोवृत्ति हो जाती है। एक बार भी भाग्य ने रेस का साथ दिया होता तो बात भी थी । जैनेद्र ने त्याग पञ्चः किसी की डायरी हाथ लग जाने की बात केही श्रौर विश्वास दिलाया कि उसी डायरीको जरा सम्पादित कर वे प्रकाशित कर रहे हैं तो बात समझ में श्राई और पाठकों ने उसे सत्य समम कर उस पर विश्वास भी किया | पर बार बार जब वही बात होने लगो, कल्याणी मे भी वही बात, यहां तक कि श्रगे जयव्रधेन में भी वही बात, तो पाठकों के लिए इस ध्रमके जाल को तोड़ना सहज हो गया भनौर्‌ भ्रब उनमें इस तरह कै कौशल के प्रति उदासीनता प्रा হু । मान लीजिये कि कोई कवि एक युद्ध विरोधी श्रथवा पूंजीवाद विरोधी महाक्ताब्य लिख रहा है। यह निश्चित है कि उस्ते बाध्य होकर युद्ध की दारुणता, महानाश, प्रलयंकरता का अतिमात्रिक चित्रण करना ही पड़ेगा । वह इससे पीछा छुडा ही केप्ते सकता है जब वहु इसीके लिए प्रतिश्षत है । पूजीवांदी शोषण के भयानक हृश्यों का चित्रण करना ही पड़ेगा । लेखक के बावजूद भी उस्तकी कलात्मक प्रतिभा का एक बृहुद भाग दूसरी भ्रोर प्रेरित होगा । जब ऐसी बात झनिवार्य है तो यह न द , +




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