कालिदास | Kalidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ক্বান্ত-লিতীঘ ३ का रचना-काल सोलहवीं शताब्दी है। यह कालिदासके सेकड़ों वर्षों बाद लिखा गया था । इसलिए. इसका ऐतिहासिक महत्त्व या मूल्य बहुत ही कम है। आश्चमं तो यह है कि भिन्न-कालीन कवियोंको एक ही समयमें ओर एक ही कतारमें बल्लालने लाकर खड़ा कर दिया है | भोजके दरबारमें कालिदास, भवभूति, भारवि, दण्डी, बाण, इन सबको आप समस्या-पूर्ति करते हुए पाएँगे। इन कवियोंका आश्रय-दाता प्रसिद्ध धाराघीश भोज भी उक्त कवियोंके कई सौ वर्ष बाद ११ वीं सदीमें हुआ था, यह तो उसके ताम्र-पत्रोंसे भी सिद्ध हो चुका है। अब पाठक स्वयं इसका निर्णय करें कि कवियोंके समय-निणेय करनमेमें उक्त ४ प्रबन्ध ” कितना निकम्मा हे । परम्परागत विश्वसनीय सामग्रीके अभावमें कालिदासके जन्म-स्थान, स्थिति-काल तथा चरित्रके सम्बन्धमें अनेकोंने अनेक तरहकी मनमानी कब्पनाएँ की हैं | इन सब प्रश्नोंमि उनका स्थिति-काल एक अत्यन्त विवादग्रस्त विषय हे, साथ ही वह अत्यन्त महत्वका और अन्य सब प्रश्नोंका विवेचन करनेमें आधारभूत भी । इससे इस परि.छेदमें इसी विषयका विचार किया जायगा कालिदासके कालकी दो स्पष्ट सीमायें विद्वानोंने मानी हैं । कालिदासने अपने £ प्रालविकाभिमित्र ” नाटकका कथानक शृुंगवंशीय राजा अग्रिमित्रके चरित्रसे लिया है । यह अभिमित्र, मोयबंशका उच्छेद कर मगध साम्राज्यको छीननेवाले सेनापति पुष्यमित्रका पुत्र था। इसका समय ईसासे लगभग १५० वषे पूवे विद्वानोंने निधारित किया है। तब कालिदासका समय इससे पहले नहीं हो सकता । कालिदासके नामका स्पष्ट उल्लेख पहले पहल कन्नोजके सम्राट हषेके (ई० स० ६०६-६४७ ) आश्रित प्रसिद्ध संस्कृत महाकवि बाणमह कृत हषचरितिकी प्रस्तावनामें और दक्षिण-मारतके “ ऐहोले ” नामक ग्राममें प्राप्त हुए शिलालेखपर (३० स० ६३४ ) खुदी हुई प्रशस्तिमें आया है। ये दोनों उल्लेख ईसाकी सातवीं शताब्दीके हैं। इससे इसके बाद कालिदासका काल नहीं हो सकता । कालिदासके स्थिति-कालके विषयमें निम्न-लिखित म॒त प्रस्तुत किये जाते हैंः-- (१) ईसासे पूर्व दूसरी शताब्दी (डॉ० कुन्हन राजा ), (२) ईसाकी पहली द्ाताब्दी ( रा० चिंतामणि वैद्य ), (३ ) ईसाकी तीसरी शताब्दी ( श्री. द. वै. केतकर ), ८४) ईसाकी चौथी शताब्दीका उत्तराध (डा० सर रामकृष्ण भाण्डारकर आदि भारतीय तथा अनेक यूरोपियन पंडित ),




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