पिकनिक | Piknik

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Piknik by कमलादेवी चौधरी - Kamaladevi Chaudhary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ पिकनिक अशान्ति तो मुझे कुछ प्रतीत होती नहीं | लोग मुझे दुखिया समझ- कर मुझ पर करुणा का भाव दिखलाते हैं, मेरे दुख पर आँसू बहाते हैं ; पर में तो बहुत सुखी हूँ । पिता मुझे कितना प्यार करते हैं ! मेरे मा नहीं हैं, भाई-बहन भी नहीं हैं, में अली हूँ ; लेकिन यह अकेलापन अब तक तो कुछ अखरता नहीं है। कितने तो काम हैं, मुझे यह सोचने की फुसत ही कब मिलती है कि मैं अकंली हूँ । पति के मैंने दर्शन ही नहीं किये | कभी-कभी मन दुखी अवश्य होने लगता है। मेरा विवाह पिता ने इतनी छोटी उम्न में क्‍यों कर दिया ? विलायत जाते समय पतिदेव मुभसे मिलने आये थे ; पर लज्जावश मैं उनके समीप गई हाँ नहीं | वे नाराज़ होकर प्रातः ही चले गये, ओर विदेश ही में उनकी मृत्यु हों गई। यह ख़याल अवश्य हृदय को ठेस पहुँचाता है। प्रिता को छोड़कर मैं यहाँ केसे रहूँगी? यह आश्रम तो मेरे घर- টানা লী नहीं है। गंगा का किनारा होने से कुछ सुहावना अवश्य जान पड़ता है। मुझे यहाँ फुलवारी लगाने को कहाँ मिलेगी ? कविताएँ भी शायद ही लिख सकू । महात्मा की आजा पर ही तो चलना होगा न | ओर फिर पिताजी को कितना कष्ट होगा ? अधियाले ही चाय पीते है। कोई नौकर भी इतने सवेरे न उठ सकेगा । और मेरी मैंना मुभे न देखकर व्याकुल हौ जायगी | मदनगौर বিনা সই खिलाये आधा चारा भी नदीं खायगा | कहीं नौकरों ने संध्या समय कबूतरों को बन्द नहीं किया, तो उन्हें बिल्ली खा जाथगी। मेरे पीछे मेरी फुल्वाड़ी उजड़ जायगी'।




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