भारतीय चित्त, मानस एवं काल | Bharatiya Chitt, Manas Aur Kaal

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Bharatiya Chitt, Manas Aur Kaal by धर्मपाल - Dharmapal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बाद एक आनेवाली पीदी को देते गए। इस गुलामी की मानसिकता के आगे अपनी विवेकशील और तेजस्वी बुद्धि भी दव गई। यूरोपीय या यूरोपीय जैसा बनना ही हमारी आकाक्षा वन गई। देश को वैसा ही बनाने का प्रयास हम करने लगे। अपनी सरचनाएँ पद्धतिया सस्थाएँ वैसी ही बन गईं। गाघीजी १९१५ में दक्षिण अफ्रिका से भारत आए तब भारत ऐसा था। उन्होने जनमानस को जगाया उसमें प्राण फूके उसकी भावनाओं को अपने दाणी और व्यवहार मँ अभिव्यक्त कर भारत के लिए योग्य हज़ारों वर्षो की परम्परा के अनुसार व्यवस्थाओं गतिविधियों और पद्धतियों को प्रतिष्ठित किया और भारत को फिर से भारत बनाने का प्रयास किया। स्वतत्रता के साथ साथ स्वराज को भी लाने के लिए वे जूझे। परतु स्वतत्रता मात्र सत्ता का हस्तान्तरण (19118167 ०१ एत) ही वन कर रह गया। उसके साथ स्वराज नहीं आया। सुराज्य की तो कल्पना भी नहीं कर सकते। आज की अपनी सारी अनवस्था का मूल यह है। हम अपनी जीवनशैली चाहते ही नहीं हैं। स्वतत्र भारत में भी हम यूरोप अमेरिका की ओर मुंह लगाये बेठे हैं। यूरोप के अनुयायी बनना ही हमें अच्छा लगता है! परन्तु यद्ठ क्या समग्र भारत का सच है ? नहीं भारत की अस्सी प्रतिशत जनसख्या यूरोपीय विचार और शैली जानती भी नहीं और मानती भी नहीं है। उसका उसके साथ कुछ लेना देना भी नहीं है। उनके रीतिरिवाज मान्यताए पद्धतिया सब यैसी की वैसी टी है। केयल शिक्षित लोग उन्हें पिछड़े और अधविश्वासी कहकर आलोचना करते हैं उन्हें नीचा दिखाते हैं और अपने जैसा बनाना घाहते हैं। यही उनकी विकास और आघुनिकताकी कल्पना है। भारत वस्तुत तो उन लोगों का बना हुआ है. उन का है। परन्तु जो बीस प्रतिशत लोग हैं वे भारत पर शासन करते हैं। वे ही कायदे कानून बनाते हैं और न्याय करते हैं वे ही उद्योग चलाते हैं और कर योजना करते हैं। वे ही पढठाते हैं और नौकरी देते है वे ही खानपान वेशभूषा भाषा और कला अपनाते हैं (जा यूरोपीय हैं) और उनको विज्ञापनों के माध्यम से प्रतिष्ठित करते हैं। यहाँ के अस्सी प्रतिशत लोगों को वे पराये मानते ह मोक्ष मानते ह उनम सुधार लाना चाहते हैं और वे सुधरते नहीं इसलिए उनकी आलोचना करते हैं। वे लोग स्वय तो यूरोपीय जैसे वन ही गए हैं. दूसरों को भी वैसा ही बनाना चाहते हैं। ये जैसे कि भारत को यूरोप के हाथों बेचना ही चाहते हैं. जिन लोगों का भारत है वे तो उनकी गिनती में ही नहीं हैं। इस परिस्थिति को हम यदि बदलना चाहते हैं तो हमे अध्ययन करना होगा - पन्द्रह




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