व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भाग - 2 | Vyakhyapragyaptisutra Bhag - 2

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Vyakhyapragyaptisutra Bhag - 2  by ब्रजलाल जी महाराज - Brajalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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की एक वणादि क' पुट्गला का भय वर्णादे में विकुवण एवं परिणमन-सामथ्य ९२, विभिन्न वर्णादि के २१ झालापक सूत्र ९५, पाच ष्णो के १० ट्विकसयोगी श्रालापक सूत्र ९५, दो गध का एक आलापक ९३, पाच रस के दस भालापक सूत्र ९५, भ्राठ स्पश वै चार श्रासापक सूत्र ९५, अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या युक्त देवा द्वारा प्रविशुद्ध विशुद्ध लेश्या वाले देवादि को जानने-देखने की प्ररूपणा ९५, तीन पदा के बारह विकल्प ९७। दशम उद्देशक-पश्रयतीर्थी (सूत्र १--१५) ९९--१०५ अयतोधिक-मतमिराक रणपूवक' सम्पूण लोक में सव जीव! के सुख-दु ख को अणुमात्र भी दिखाने की श्रसभयता फी प्ररूपणा ९९ दण्टात दारा स्वमत स्वापना १००, जीव का निर्चित स्वरूप श्रौर उसके सम्बध भे प्रनेकान्तशली म प्रष्नोत्तर १००, दौ वार जीव भब्दप्रयोग का तात्पय १०२ जीव कदाचित जीता है, कदाचित्त नही जीता सका तात्पय १०२, एका त दुखवंदन रूप भ्रयतीथिक मत निराकरणपुवक अनेक तशैली से सुख-दुखादि भेदन-प्ररूपणा १०२, समाधान का स्पष्टीकरण १०३ चौवीस दण्डको में प्लात्म-शरीरक्षेत्रावगाढ पुदगलाहार प्ररूपणा १०४, केवली भगवान्‌ का भ्रात्मा हारा नान~दशन सामथ्य १०४, दसवें उद्देशक की सग्रहणी गाया १०५। सप्तम शतक १०६-२०४ प्रायिक १०६ सप्तम शतकगत दस उद्देशको का सक्षिप्त परिचय सप्तम सतक की सग्रहणी गाया १०८ प्रथम उदेशक-प्राहार (सूत्र २-२०) १०८--१२३ जीवो के श्रनाहार भौर सर्वात्साहार बे काल की प्रश्पणा १०८, परभवगमनकास मे भ्राहारक-घ्नाहारक रहस्य १०९, सर्वात्पाहारता दो समय मे १०९, लाक वै सस्थान का निषूपण ११०, लोक का सस्थान ११०, श्रमणोपाथ्रय में बैठकर सामायिक किये हुए श्रमणोपासक का लगने वाली क्रिया १११, साम्परायिकं त्रिया लगने का कारण १११, श्रमणोपासक बे व्रत-परत्याख्यान मे प्रतिचार लगने कौ शका का समाधान १११, अहिसाव्रत भे श्रतिचार नही लता ११२ श्रमण या माहन षो श्राहार दासा प्रतिलाभित्त करने वाले श्रमणोपासक चौ लाभ ११२, चयति क्रिया के विशेष अथ ११३, दानविशेष से वोधि और सिद्धि की प्राप्ति ११४, नि'सगतादि कारणो से कमरहित (मुक्त) जीव की (ऊध्व) गति-परल्पणा ११४, श्रकम जीव की गति के छह कारण ११६, दुखी को दुख की स्पृष्टता झादि सिद्धाल्ता की भ्ररूपणा ११७, दुखो भौर ्रदुखी कौ मीमासा ११७, उपयोगरहित गमनादि प्रवत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी प्रिया लगने का सयुक्तिकि निन्भण ११८ /वोच्छिन्ना' शद का तात्पय ११९, 'भअहासुत्त और उस्मुत्त' का तात्पर्याय ११९, अगरारादि लेप से युक्त और मुक्त तथा क्षेत्रातिकान्तादि दोपयुक्त एवं शस्व्रातीतादियुक्त पान-भोजन का अर्थ ११९, अगारादि दोपा का स्वरूप १२२, क्षेत्रातिक्ान्त का भावाय १२३, शक्कृटी-प्रण्ड प्रमाण का तात्पय १२३ शस्त्रातीतादि की ল্য य्याख्या १२३ नवकोदटि-विशुढ का श्रष १२३, उद्गम, उत्पात्ना भ्रौर एषणा मै दोष १२३। (१५)




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