हिंदी को मराठी संतो की देन | Hindi ko Marathi Santon ki Dena

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Hindi ko Marathi Santon ki Dena by आचार्य विजयमोहन शर्मा - Aacharya Vijaymohan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका मराठी सन्‍्तों की हिन्दी के प्रति सहज ममता रही है। मध्य-युग से लेकर आजतक लगातार मराठी सन्त कीत्तन-भजन के अवसर पर मराठी अमभंगों और पदों के साथ एक-दो हिन्दी-पद गाते आ रहे हैँ। जो मराठी सन्त कवि-प्रतिमा-सम्पन्न रहे रै, उन्होंने मराठी के साथ हिन्दी-पदों की स्वयं रचना की है और जो केवल कीत्तनकार रहे हैं, उनकी मराठी अमंगों आदि के साथ किसी प्रसिद्ध हिन्दी-सन्‍्त के पद गाने की परिपाटी रही है। सनन्‍्तों ने प्रान्त या भाषा-मेद को कभी स्वीकार नहीं किया । महाराष्ट्र के सन्त महिपति बोश्राने ईसा की १८ वीं शताब्दी में 'भक्त-विजय” नामक सन्त-चरित्र-मन्थ लिखा है जिसमे मराठी के ही नहीं, हिन्दी के सन्‍्तों का भी उल्लास- पूर्ण गुणगान है । लोक-कल्याण की व्यापक भावना से अ्भिमूत इन सन्तों की हिन्दी-बाणी का अध्ययन करने का अवसर लेखक को नागपुर आने पर प्रास हुआ। सन्‌ १६४६ ई० में, नागपुर में जब अखिल भारतीय ग्राच्यविद्या-परिषद्‌ का वार्षिक अधिवेशन हुआ, तब उसने नामदेव की हिन्दी-कविता पर एक शोध-निबन्ध पढ़ा जो अखिल भारतीय प्राच्य-विद्या-परिषद्‌ः के विवरण-अन्थ तथा शान्ति-निकेतन की त्रैमासिक पत्रिका वविश्व- भारती” में प्रकाशित हुआ | उस समय उसके सम्पादक श्राचायं इहजारीप्रसाद द्विवेदी थे। उन्होंने तथा प्राच्य-विद्या-परिषद्‌ के स्थानीय मंत्री डा० हीरालाल जैन ने इस दिशा मे कायं करने की प्रेरणा दी। तभी से बह मराठी सन्तों श्रौर उनकी हिन्दी-रचना पर सामग्री संचित कर उसपर मनन-चितन करता श्राया है । लेखक कौ श्रपनी सामग्री जुटाने के लिए. साम्प्रदायिक त्षेत्रों, साहित्य-संस्थाओ्रों और शोध-कार्यप्रेमियों का आश्रय लेना पड़ा। धूलिया के श्री समर्थ वाग्देवता-मंदिर में सबसे च्रधिक सन्त-वाङ्मय की निधि रक्षित है | वहाँ लगभग दो सहल हस्तलिखित पोथिग्रों के विवरण तैयार हो चुके हैं और शेप के हो रहे हैँ | इसी प्रकार मराठवाड़ा-क्षेत्र की सामश्री मराठवाड़ा- साहित्य-परिषद्‌ हैदराबाद के ग्ंथागार में सुरक्षित हे। परन्तु वहाँ सामग्री का पूर्ण रूप से वर्गीकरण नहीं हो पाया है। अनेक प्रमुख सन्‍्तों की वाणियाँ 'गाथाओं' के रूप में प्रकाशित हो चुकी हैं । परन्तु, अनेक “गाथाओं' मेँ केवल मराठी के श्रभंग, पद्‌ आदि संकलित हैं| ऐसी दशा में लेखक को अप्रकाशित सामग्री का अधिक सहारा लेना पड़ा है। ग्वालियर में श्री भा० रा० भालेराव के निजी ग्रंथागार में भी सामग्री है, पर




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