हिंदी को मराठी संतों की देन | Hindi Ko Marathi Santon Ki Den

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Hindi Ko Marathi Santon Ki Den by विनय मोहन शर्मा - Vinay Mohan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मूमिका [ ग नारदादि सिद्ध साथ व्यास वाल्मीक शुक च्युक च्युक के गय. सो मोह के नदी बहे। ज्याहि आदि, मध्य नहीं श्रत कहत जयराम पंत कहा लों वसद करौं मौहे येक जीभ है। जयरामस्वामी का उपयुक्त कवित्त कवित्वमय है| उसमें 'मराठी' हिन्दी का व्रजरूप है | शिवराम ये भी रामदासी थे और इनका मठ तेलंगाना में था। ये मौजी साधु थे। निजाम . शाही की कल्याणी में इनका मठ था। इनका जन्म-शक-संबत, १६२५ कहा जाता है। इनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार है-- नारायण (पूर्णानन्द) | ६५ | रामदील्लित अनन्त লহ शिवराम 77770010100 | अनंत भट शेषभट ये पूर्णानंद के शिष्य हैं। इनके हिन्दीपद, दोहरे आदि लेखक को मराठवाड़ा-साहित्य-परिषद्‌ (हैदराबाद) के हस्तलिखित अंथागार से उपलब्ध हुए हैं । निजामशाही मे रहने से इनकी माषा मे प्रवाह है । भावों में मस्ती है | इनके नाम पर प्रचलिंत दोहरे आदि नीचे दिये जाते दै, जो स्थानीय लोक-प्रचलित खड़ीबोली में हैं और नीतिपरक हैं । साधू हमारे आत्मा, हम साथू के जीव । साधू दुनिया यों बसे कि ज्यों गोरस में घीव || >८ >< रामेभक्ति बड़ी कठीण हय खडि जेसी धार । डगमगावे तो गिर पड़े न तो उतरे पार ॥ > ১ सबमन ऐसी प्रीत कर ज्यों चुना हृदि का हेत | हर्दि ने जदं व्यजी, चूना रहे न श्वेत ॥ साह का घर उच्य हय, जेसी बड़ी खजूर | चदे तो चाखे प्रेमरसः, गिरे तो चकना चूर ॥ तेडी पगड़ी बंद कर उपर জানি फूल | तलब आई जब साई की, ग़ई चोकडी मूल ॥ 2 > ১৫ ৯৫




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