श्रीमद्भागवत गीता | Shreemadbhagwatgeetha

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Shreemadbhagwatgeetha by संत ज्ञानेश्वर -sant gyaneshwar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सतर्कवाद ही आपका कमल के समान वरद हस्त है और धर्म-प्रतिष्ठा ही आपका अभय देने वाला हाथ है। महासुख के परमानन्द की प्राप्ति कराने वाला निर्मल सुविचार ही आपका सरल शुंड-दंड है। मतभेदों का परिहार करने वाला जो संवाद है वह आपका अखंडित और शुभ्र वर्ण वाला दांत है। उन्मेष या ज्ञान-तेज का स्फुरण विष्न-राज गणेशजी के चमकते हुए सूक्ष्म नेत्र हैं। इसी प्रकार युझे ऐसा जान पड़ता है कि पूर्व-मीमांसा और उत्तर-मीमांसा इनके दोनों कान हैं और इन्हीं दोनों कानों पर मुनिरूपी भ्रमर गंड-स्थल से बहने वाले वोध-रूपी मद-रस का सेवन या पान करते हैं। तत्त्वार्थ रूपी प्रवाल-से चमकने वाले द्वैत और अद्वैत दोनों गंड-स्थल हैं और ये दोनों गणेशजी के मस्तक पर बहुत ही पास-पास होने के कारण मिलकर प्रायः एक-से हो गये हैं। ज्ञान-रूपी मकरन्द से ओत-प्रोत भरे हुए दसों उपनिषद्‌ ही मधुर सुगन्धि वाले फूलों के मुकुट के समान मस्तक पर सुशोभित है। इन गणेशजी में दोनों चरण अकार हैं विशाल उदर उकार है और मस्तक का महामंडलर मकार है। अकार उकार और मकार इन तीनों के योग से होता है जिसमें सारा साहित्य-संसार संमाविष्ट होता है। इसीलिए मै सद्गुरु की कृपा से उस अखिल विश्व के मूल बीज को नमस्कार करता हूं। अब मैं उस विश्व-मोहिनी शारदा की वन्दना करता हूं जो वाणी के नित्य नये-नये विलास प्रकट करती है और जो चातुर्य तथा कलाओं में विशेष प्रवीण है। जिन सदूगुरु ने मुझे इस संसार-रूपी सागर से पार उतारा है वे सदूगुरु मेरे अन्तःकरण में पूरी तरह से बैठे हुए हैं इसी से विवेक के लिए मेरे मन में विशेष आदर है। जिस प्रकार आंखों में दिव्य अंजन लगाने से दृष्टि को अपूर्व बल प्राप्त होता है और तब आदमी जहां देखता है वहीं उसे भूमि के अन्दर गड़े हुए द्रव्यों की बड़ी-बडी राशियां दिखाई पड़ने लगती हैं अथवा जिस प्रकार हाथ में चिन्तामणि आने पर सब प्रकार के मनोरथ सिद्ध हो जाते है उसी प्रकार मैं ज्ञानदेव कहता हूं कि श्रीनिवृत्तिनाथजी की कृपा से मैं पूर्ण काम हो गया हूं। इसीलिए बुद्धिमान पुरुषों को गुरु की भक्ति करनी चाहिए और उसके द्वारा कृतकार्य होना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार वृक्ष की जड मे पानी सींचने से आपसे आप सब शाखाएं और पल्लव हरे-भरे हो जाते हैं अथवा जिस प्रकार सागर में स्नान करने से न्रिभुवन के समस्त तीथों में स्नान करने का फल होता है अथवा जिस प्रकार अमृत-रस का पान करने से समस्त रसों का आनन्द मिल जाता है उसी प्रकार जिनके द्वारा मेरे समस्त इष्ट-मनोरथ सिद्ध होते हैं उन श्री गुरुदेव की मैं बार-बार वन्दना करता हूं। अब आप लोग एक प्रौढ़ और गम्भीर कथा सुनें। यह कथा समस्त कला-विलासों की जन्मभूमि अथवा विवेक-बृक्षों का अपूर्व उपवन है। यह कथा सब सुखों के मूल-स्थान महा-सिद्धान्त की नींव है अथवा नौ रसों के अमृत का सागर है। अथवा यह कथा स्वयं परम-गति का आश्रय-स्थल समस्त विद्याओं का आदिपीठ और समस्त शास्त्रों का निवास-स्थान है । अथवा यह कथा धार्मिक विचारों का मायका जन्मभूमि सज्जनों का जीवन और सरस्वती देवी के सौन्दर्य रूपी सम्पत्ति का भांडार है। अथवा व्यासदेव की विशाल मति को स्फुरित करके स्वयं वाणी देवी इस कथा के रूप में त्रिभुवन में प्रकट हुई है। इसीलिए यह कथा समस्त महाकाव्यों की महारानी और सब ग्रन्थों के गौरव का मूल है और इसी से शुंगार आदि नौ रसों को सरसता प्राप्त हुई है। अब इस कथा का एक और त्तक्षण सुनिये । इसी कथा से शब्द-वैभव शास्त्र-शुद्ध हुआ है और आत्मज्ञान की कोमलता इसी से दूनी हुई है। चातुर्य को इसी कथा से चतुराई प्राप्त हुई है भक्ति-रस इसी से स्वादिष्ट हुआ है और सुख का सौभाग्य इसी से पुष्ट हुआ है। इसी से माधुर्य को मधुरता शुंगार को सुन्दरता और अच्छी बातों को लोकप्रियता प्राप्त हुई है और उनकी शोभा हुई है। इसी कथा से कलाओं का कलाज्ञान प्राप्त हुआ है पुण्य को अपूर्व वैभव मिला है और इसीलिए इससे राजा जनमेजय के पाप-कर्मों के दोषों का सहज में प्रक्नालन हुआ है। यदि इसके सम्बन्ध में कुछ और विचार किया जाय तो यह निश्चित होता है कि इसी ने रंगों को सुरंगता की विपुल सामर्थ्य और गुणों को सदूगुणता का तेज प्रदान किया है । तात्पर्य यह कि जिस १४ के श्रीमद्रगवद्ीता ज्ञा गीता




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