पञ्च प्रतिक्रमण | Panch Pratikraman
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
529
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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आअपरिमित होने के कारण शब्दों फे हारा किसी
तरह नहीं घताया जा सफता | इस लिये इस 'मंवछा से
जीव का स्वरूप अभिवेधनीय है | इस बात को
जैसे अन्य-दशनों म॑ “भनिर्विकल्व/+ शब्द से या
पेतिनाति''$ शब्द से कह्दा दें बसे दी अनदरीन
° यने। वा नियन्त, न युथ सनसा सनिः {
शुद्धालुभवसपेय, वदे परमएमनः॥ ” द्वितीय, शोक ४ ॥
4 निरालम्बं निराकार, निर्विद्य निरामयम् }
पामन. प्रम स्याति -निद्पापि निरन्जनम् ॥* प्रयम, ३ ॥
पायन्दोउपि नया नके, तसस्वरूप स्पुराम्ति न ।
सश्र दव कोकः, कृदग्रतिनिदृ्तयः ५० द्वि०, ८ ॥
৮০১১৩)
निद्रे तु लद्॒प,-गम्प नाजुभय তিনঃ |৮ ভ০। ২ |
গমন্আাভুন্িরঃ भिन्न, सिद्ान्ता। कथयन्ति तम्
चम्तुत्तु न निर्वाच्य, तस्य रूपं कथचन ॥ द्वि) १३)
[ श्रीयशोविजय-उपाध्याय-हत परमज्योति-परचर्षिशनिका ]
*नडमधराच्येव निवर्तन्त, व्ोधीमिः सदव तु ।
निद्णषवाछमावा,-दविरेपायाममावत्त. ५ 7
[भरीशइकराचायक्ृत-उपदेशसाह रक्षी नान्यदन्यत्यरुप्य छा० ३१ ।]
„ पधति-थर जीव निरमुण अरक्िय और भविशष होने से न बुद्धिप्राष्य है
और ने बचन-मरतिपाथ इ ।
8 'सद्पनेत्ति स्यामे न ह गद्वतेऽी्यो न {हि शी्तेऽ
सदगीा न हि सञ्यतऽमिते। न व्यथते न रिप्वत्यभय ध जनक ध्रप्तोसीति
होवच यावदस्य. [वृद्धद्ारण्यक), अध्याय ४, माद्यण २, सून ४4
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