पञ्च प्रतिक्रमण | Panch Pratikraman

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Panch Pratikraman by पण्डित सुखलालजी - Pandit Sukhlalji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{= 1 आअपरिमित होने के कारण शब्दों फे हारा किसी तरह नहीं घताया जा सफता | इस लिये इस 'मंवछा से जीव का स्वरूप अभिवेधनीय है | इस बात को जैसे अन्य-दशनों म॑ “भनिर्विकल्व/+ शब्द से या पेतिनाति''$ शब्द से कह्दा दें बसे दी अनदरीन ° यने। वा नियन्त, न युथ सनसा सनिः { शुद्धालुभवसपेय, वदे परमएमनः॥ ” द्वितीय, शोक ४ ॥ 4 निरालम्बं निराकार, निर्विद्य निरामयम्‌ } पामन. प्रम स्याति -निद्पापि निरन्जनम्‌ ॥* प्रयम, ३ ॥ पायन्दोउपि नया नके, तसस्वरूप स्पुराम्ति न । सश्र दव कोकः, कृदग्रतिनिदृ्तयः ५० द्वि०, ८ ॥ ৮০১১৩) निद्रे तु लद्॒प,-गम्प नाजुभय তিনঃ |৮ ভ০। ২ | গমন্আাভুন্িরঃ भिन्न, सिद्ान्ता। कथयन्ति तम्‌ चम्तुत्तु न निर्वाच्य, तस्य रूपं कथचन ॥ द्वि) १३) [ श्रीयशोविजय-उपाध्याय-हत परमज्योति-परचर्षिशनिका ] *नडमधराच्येव निवर्तन्त, व्ोधीमिः सदव तु । निद्णषवाछमावा,-दविरेपायाममावत्त. ५ 7 [भरीशइकराचायक्ृत-उपदेशसाह रक्षी नान्यदन्यत्यरुप्य छा० ३१ ।] „ पधति-थर जीव निरमुण अरक्िय और भविशष होने से न बुद्धिप्राष्य है और ने बचन-मरतिपाथ इ । 8 'सद्पनेत्ति स्यामे न ह गद्वतेऽी्यो न {हि शी्तेऽ सदगीा न हि सञ्यतऽमिते। न व्यथते न रिप्वत्यभय ध जनक ध्रप्तोसीति होवच यावदस्य. [वृद्धद्‌ारण्यक), अध्याय ४, माद्यण २, सून ४4




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