लाला हरदयाल के स्वाधीन विचार | Lala Hardayal Ke Swadhin Vichar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
240
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)लाला इर्याल ] १३
मरीखा तेज्ञ, प्रतिभावान और प्रखर बुद्धि का मनुष्य नहीं देखा ।
अप्रेज़ी में जिसे ७०४०५ कहते हैं वह वास्तव में धृस्दयाल जी
थे । अपनी तर्कयुक्त वातहचीत से वह बड़ों-बड़ों का मुंह बन्द्
कर देते थे। एक बार उन्होंने अपनी वाकपद्ुता से लाला
लाजपतराय जी के समान मद्दापुरुष को लाजवाब फर दिया
था । यह आँखों देखी घटना है ।
अपने आकसफोर्ड के मित्र पं० अगमोहन नाथ चक के जरिये
से हरदयाल जी सन् १९०८ में कानपुर आये थे और २२ दिन
यहां पं० जगमोहन के पिता प॑० प्रथ्यीनाथ के मकान में ठहरे
भ्र । एक दिनि शाम को भगवतदास के घाट के रास्ते में उनसे
मेरों भी भेंट हो गई। घुटनों ठक ऊँची धोती बाँघे, ऊँचा-सा
कुर्ता पहने, कन्मे पर एक डण्डे के ऊपर धोती लटकाये तीन-
चार साथियों के साथ गप शप्र करते हुये आप जा रहे थे।
सिवा एनक के बाक़ी सारी वेश-भूपा बच्च देद्दातियो की-सी थी।
इन्हें देखकर फो नदी कद सकता था कि यही मद्दापंटित
इरदयाल हैं जो विलायत से अभी ह्वान दी में लोटे है ।
परिचय दवाने के दूसरे द्वी दिन में हरदयाल जी फे ठीद्दे पर
पहुँचा । फाफी देर तक इधर-उधर की बातचीत रोती रदी
पात-चीत मेँ मादू हुआ कि दरदयालज्ञी लाद्वौर मे एक
श्राश्रम खोलने वाले हैं और उसीके लिए बह उत्साद्दी युवकों
को पदना छुद्टा फर अपने पास कानपुर में जमा कर रहे थे ।
मिस्टर (अब टावटर) ताराचर्द, पंजाब के श्री परशुराम और
दिल्ली फेथी गोविन्द प्रसाद आकर आक्रम में जाने के लिये
फानपुर में ठदरे हुये थे। यहाँ सारे दिन पठननपाठन श्रीर
राजनीति की चर्चा रहती थी 1 दरद्याल जी की चात-बान में
इनझा अपार छान दिसलाई देता था। उनकी হীলী स्कपूर्स
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