सर्वोदय तीर्थ ग्रंथ | Sarvodya Thirth Granth

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Sarvodya Thirth Granth  by भक्त शिरोमणि - Bhakt Shiromani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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= ^~ £ सर्वादय तीथे मन्थः ३६१ ओर वाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रहों से दूर रहना त्याग कहलाताहै। या पात्रदान देना यह्‌ त्यागधमे मे आता है अथानू स्वद्रव्य का सदुपयोग करना सत्पात्रदान हे । प्रशस्त अर्थान्‌ मन, वचन काया शुद्ध कर के एकाग्रता से श्रात्मध्यान करना धमं ध्यान अथवा शुक्लध्यान कहलाता है ओर इसीका नाम ही समाधि है | तथा दया, संयम, त्याग बगैरहमे निष्ठा प्राप्त होजाना ऐसा जिनके मन से पाया जाता है उसीका नाम वीर शारूत है चेर वही उेलेक्यसे अट्ितीय जिनेश्वर भगवान्‌ का अनेकान्तमय मत प्रहण करने योग्य है तथा समस्त प्राशियो का कल्याण करने से समय है । य्ह प्रश्न उपस्थित होता है कि, कहाँ से सिद्ध हेगा ? अर्थात्‌ नय ओर प्रमाणो से स्य्टादमत की स्द्धिहो जाती है क्योक्रि सुनिश्चित है सम्भव बाधक प्रमाण जिसमे एसा भगवान्‌ का शासन वादि श्चं र प्रतिवादि इन दोनो से प्रसिद्र है । श्रना काल से दशन मोहनीय कर्म ॐ उदय वशीभत होकर सदंथा एकान्तवादियो से माने गये कल्पितमिध्या एकान्तप्रद यदी एक दृरभिमान अखिल देशकालगत पुरुषो से अवगत होने से वे मिथ्यावादि लोग भगवान के सत से अत्यन्त विरुद्द है अतः कोई हालत से निर्दोष शासन को ग्रहण नहीं कर सकते । तथा वे परमाथ से वाह्म विपरीत होने से सर्देव पराधीन है एवं यथार्थ पअनेकान्तमतरूपी समुद्र से वाह्ममिथ्या एकान्त कल्पित अथ दुनिया में प्रसिद्ध है। अर उनसे कल्पिताथ स्याद्रादियो क अनुसरण करने बलि कंस हो सकते है ? जिससे आपका मत निर्वाधित न हो सके | एवं मिथ्याप्रवादियों के द्वारा स्याद्राद माय बावित नहीं किया जाता अन्यथा अतिग्रसंग दोष आा जायगा । शङ्कुर कट सक्ता हं कि द्रव्यार्थिकनय से निश्चित किया गया अर्थं पारमार्थिक नहीं ह्‌। सेकता † जिससे परवादी अवाधित हा जवेगा । श्रौर पर्यायार्थिक नय तो द्रव्यार्थिक नयका ही अनुसरण करता है तन्‌ जीवादिक द्रव्य सबंथा नित्य नहीं हो सकते क्योकि पययायायिक नयकी अपेक्ता से कथचित्‌ नित्य कथंचित्‌ अनित्य होने से इन दोनों से क्रम धरर शक्रम श्रयीत युगपन अवस्थारुप अ्थक्रिया बन जाती है। तथा द्रव्य में शत काई भी क्रम सभवनोय नहीं हूं क्योकि निष्क्रिय होने से उसमे देशान्तर गसन का अभाव ए्‌ यांद साक्र्यत्ठ सानाग ता सबव्यापकत्व का विरोध हो जायगा। ओऔर कालत भी शाश्वतिक नही है उसमे ससम्त काज्ञ द्रव्य का व्यापकत्व होने से प्रतिनियत कालव्यापी नीं हा सकता यदि हया ता नित्यत्व के विरोध से द्रव्यत्व की घटना नहीं वन सकती । यार स्वय शक्रम भा सहकारीकरण की अपेक्षा से क्रमवादी होसकता है इस प्रकार ०६ना हो तुसारा असारसण है | .. “व सहकारी कारण से कोई भी अतिशय की उत्पत्ति नहीं होती है यदि होने लगगी ता अतिप्ररूय नाझझा लेपा जायगा | यदि किचित भी उपकार नहीं करने वाले नित्यप्रव्य का सहव्गरिन्द साना जायगा तो उसके साथ লজ वधान की सिद्धि नहीं हा क =, पता यक नित्य द्रत्य उक्सी हंने से सहब्यरीकरण के साथ ही क्रमकी व्यवस्था चन




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