समता दर्शन खंड - १ | Samta Darshan Khand - 1

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Samta Darshan Khand - 1 by शान्ता भानावत - Shanta Bhanavat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समता-दर्णन ] [४ मनुष्य को बाहर-ही-बाहर भटकते रहने के लिये विवश कर दिया है । आध्यात्मिक दृष्टि से यह भयावह स्थिति है । मूल में भूल को पकड़ें : आवि युग मे प्रधानतया इस चेतना के दो परिणाम आत्मा की पर्यायो की दृष्टि से सामने आये । एक पशु जगत्‌ का तो दूसरा मानव जगत्‌ का। पशु जगत्‌ अ्रब भी उसी पाशविक दशा मे है जिस दशा में आदि युग में था, लेकिन मानव जगत्‌ ने कई क्षैत्रों मे उन्नति की है। आ्राकाश के तारो को छू लेने के उसके प्रयास उसकी चेतना शक्ति के विकास के परिणाम रूप मे देखे जा सकते है, किन्तु उसकी ऐसी चेतना शक्ति, पर-तत्त्व के सहारे चल रही है-स्वाश्रयी या स्वतत्र नही है । चेतना शक्ति के इस प्रकार के विकास ने अपनी सार्वभौम सत्ता को जड तत्त्वों के अधीन गिरवी रख दिया है। अधिकाश मानव-मस्तिष्क जड तत्त्वों की अधीनता मे, उनकी सत्ता मे अपने आ्रापको आरोपित कर के चल रहे है और यही तथ्य है जिससे समस्याएँ दिन-प्रति-दिनत जटिलतर बनती जा रही हैं । यद्यपि अलग-अलग स्थलो पर समता भावके साहश्य समाजवाद, साम्य- वाद आदि वादो के लुभावने नारे भी सामने आये है जो अधिकतम जनता के अ्रधिकतम सुख को प्रेरित करने वाले बताये जाते है, किन्तु इन वादो के प्रचारको-प्रसारको ने यदि आत्मावलोकन नही किया, श्रपनी भीतरी ग्रथियो को नही समभा तथा उन ग्रथियो को समता दर्शन की दृष्टि से खोलने की चेष्टा नही को तो क्‍या ये वाद सफल हो सकते है ? लेकिन जो कुछ हो रहा है, वाहर- ही-बाहर हो रहा है--भीतर की खोज नही है । जहाँ तक मै सोचता हूं, मेरी दृष्टि मे ऐसे ये सारे प्रयत्न मूल में भूल के साथ है । इस भूल को नही पकडेगे और नही सुवारेगे तो सिर्फ टहनियो व पत्तो को सवारने से पेड हरा भरा नही रह सकेगा । यह मूल की भूल क्‍या है ” यह लक्ष्य की आन्ति है। आज अधिकाश लोगो ने जो मुख्य लक्ष्य वना रखा है--वह यह है कि सत्ता और सम्पत्ति पर हमारा आधिपत्य टो । ममता भरी यह बहुत बडी महत्त्वाकाक्षा उनके मन मे फलती-फूलती हुई दिखाई देती है । सत्ता और सम्पत्ति ये बाहरी तत्त्व है श्रौर इनको चेतन अपने अन्दर लपेटने को उतावला हो रहा है । यह प्रयत्न व्यक्ति के स्तर से लेकर विश्व के स्तर तक चल रहा है । जब तक यह आत्म-विरोधी लक्ष्य बना रहता है, समाजवाद या समतावाद कैसे आ सकता है? सत्ता और सम्पत्ति के स्थान पर चैतन्य एवं कर्तव्य का जब तक प्रतिस्थापन नही होगा तब तक मानव जाति में समता-दर्शन के स्वप्न अधूरे ही रहेगे ।




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