जैनधर्म-मीमांसा (चौथा अध्याय ) | Jain Dharm Mimansa (Part -4)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पसज्ञान [५ दंड दे ! परन्तु ईश्वर जगेत्कर्ता भाननेसे इनका और ऐसी अनेक शकाओ का समाधान हो गया । परन्तु ईश्वरे जगत वनवि, रक्षण के ओर दंड दे; ये काथ स्वन्न हुए विना नद्यं दयो सक्ते । इम्तलिये जगत्कतुल के लिये सब्रज्ञता की कल्पना हुई । . परन्तु कुछ संच्यालेपी ऐसे भी थे जो इस प्रकार की कल्पना से संतुष्ट नहीं थे। ईश्वर की भोन्यता मे जो वाधा थीं और हैं उन्हें दूर करना कठिन था फिरंभी शुभाशुम कर्मफ की व्यवस्था बनसकती थी । उनका कहना था करि ग्राणी- जो अनेक प्रकार के सुख दुःख भोगते हैं; उनंका 'कोई अंदंड कारण अचर्य होना নিধি, किन्तु चह ईश्वर नहीं हो सकता; क्योंकि ग्राणियो को जो दुःखादि दंड मिलता है वह किसी न्यायाधीश की दंडश्रणाली से नहीं मिलता, किन्तु प्राकृतिक दंडप्रणाली से मिंठता है. । अपध्य- भोजन जैसे धरे धीरे मनुष्य को बौमार बना देता है उसी प्रकरि प्राणियों को पृण्यन्पाप-फछ मोगना पड़ता है । इस प्रचार पुण्य-पाप फल प्राकृतिक हैं | ऐसे विचारवाले छोगें की परम्परा में ही सांख्य, जैन और बौद्ध दर्शन हुए है। इन लोगेंने जब-ईश्वर की न माना तब ईश्ववादियों की- तरफ से इन लोगो के ऊपर ख़ब आक्रमण हुए। उन छोगों- का कहना था कि जब तुम ईश्व९ को नहीं मानते तब पुण्यपाप का फल मिलता है, यह कैसे जानते हो ? क्या तुमने परव्णेक देखा है ? श्या तुम्हे प्राणियों के करम दिखाई देते है £ क्या तुम्हे कमकी शक्तियों का पता है! इन सब भक्षो 'का सीधा-उर्चर तो यह' थी कि हमे विचार क्ले से 0 कापेताःकगा है । परन्तु बह युग ইলা শা দীওব समय की 7.




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