गोम्मटसार कर्मकाण्ड | Gommatsaar Karm Kand
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
330
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ १७ |
परमनियृत्तिरूप कामना । चितना ।
उनका अन्तरंग, गृहस्थावास-व्यापारादि काय॑से टकर सवैसंगपरिव्याग कर निग्रेस्यदशाके
लिए छटपटाने लगा । उनका यह् अन्तर-जाशय उनकी 'हाथनोंध' परसे स्पष्ट प्रगठ होता हैः--
“हे जीव ! असारभूत रूगनेघाले ऐसे इस व्यवसायसे अब निवृत्त हो, निवृत्त ! उस
व्यवसायके करनेमें चाहे जितना वलवान प्रारबव्घोदय दीखता हो तो भी उससे निवृत्त हो, निवृत्त !
जो कि श्रीसवेज्ञने कहा है कि चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव भी प्रारव्ध भोगे घिना मुक्त नहीं हो
सकता, फिर भी तू उस उदयके आश्रयरूप होनेसे अपना दोष जानकर उसका अत्यन्त तीन्नरूपमें
विचारकर उससे निवृत्त हौ, निवृत्त! ( हा. नो. १।१०१ कण ४४ )
है जीव ! अब त् संग-निवृत्तिरूप काछरूकी प्रतिज्ञा कर, प्रतिज्ञा कर { केवलसंगनिवृत्तिरूप
प्रतिज्ञाका विशेष अवकाश दिखाई न दे तो अंशसंगनिवृत्तिर्प इस व्यवसायका त्यागकर ! जिस
ज्ञानदशामें त्यागात्याग कुछ संभवित नहीं उस ज्ञानदशाकी सिद्धि है जिसमें ऐसा तू, सर्वेसंगत्याग'
दशा अल्पकाल भी भोगेगा तो सम्पूर्णं जगत प्रसंग्में वत्तते हुए भी तुके वाधा नहीं होगी, ऐसा होते
हुए भी सर्वज्ञने निवृत्तिको ही प्रशस्त कहा है; कारण कि ऋषभादि सर्वे परमपुरुषोंने अन्तमें
ऐसा ही किया है ।” ( हा. नो. १1१०२ क० ४५)
“राग, द्वेष ओर अज्ञानका आत्यंतिक अभाव करके जो सहजञ्न शुद्ध आत्मस्वरूपमें स्थित
हुए वही स्वरूप हमारे स्मरण, ध्यान और प्राप्त करने योग्य स्थान है ।” ( हा. नों. २। ३ क्र० १ )
“सर्वे प्रभाव और विभावसे व्यावृत्त, निज स्वभावके भान सहित, अवधूतवतु विदेहीवत्
जिनकल्पीवतु विचरते पुरुप भगवानके स्वरूपका व्यान करते हैँ “' (हा. नो. ३।३७ कऋ० १४.)
”मैं एक हूँ, असंग हूँ, सर्वे परभावसे मुक्त हैँ, असंख्यप्रदेशात्मक निजअवगाहनाप्रमाण
ह । अजन्म, अजर, अमर, शाश्वत हूँ। स्वपर्यायपरिणामी समयात्मक हूँ । शुद्ध चैतन्यमात्र
निविकल्प दृष्टा हैँ ।” (हा. नों. ३1२९ क्र० ११ )
मैं परमशुद्ध, अखंड चिद॒धातु हूँ, अचिद्धातुके संयोगरसका यह आभास तो देखो !
आश्चर्य वत्, आश्चर्यरूप, घटना है | कुछ भी अन्य विकल्पका अवकाश नहीं, स्थिति भी ऐसी ही
है ।” ( हा. नों. २। ३७ क्र० १७ )
इस प्रकार अपनी जात्मदश्ाको संभालकर वे बढ़ते रहे । आपने सं० १९५६ में व्यवहार
सम्बन्धी सर्व उपाधिसे निवृत्ति लेकर सर्वेसंगपरित्यागरूप दीक्षा धारण करनेकी अपनी मातांजीसे
आज्ञा भी ले ली थी। परन्तु उनका शारीरिक स्वास्थ्य दिन-पर-दिन चिगडता गया । उदय वरूवान
दै । शरीरको रोगने जा घेरा । अनेक उपचार करनेपर भी स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ । इसी
विवशतामें उनके हृदयकी गंभीरता बोल उठी : “अत्यन्त त्वरासे प्रवास पुरा करना था, वहाँ बीच-
में सेहराका मरुस्थछ आ गया । सिर पर बहुत वोझ था उसे आत्मवीयँसे जिसप्रकार अत्पकाल्मे
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