मित्रसंप्राप्तिः | Mitrasanprapti

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Mitrasanprapti by रामकृष्ण आचार्य - Ramkrishna Acharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1 १1 तेत तस्माद्‌ पतयु निस्तार वस्तु अपास्य तक्वा सारम्‌ तत्वम्‌ ग्राह्यम्‌ उपादेवम्‌, यथा हसे मरालै- अम्बुमष्यातु जलमध्याद क्षीरम्‌ दुरधस्‌ व यया गृह्यते इति शेप ॥ समराप्त -अम्बुमध्यातु =जम्डरुन मध्यम्‌ तस्माद्‌ (तलु०) । स्रा -- प्रयम्‌ ~=प्रर्‌ ष्यत्‌ (य), घातु क उपधा अ को मः वृद्धि 1 अपास्य अप ~-मस्‌ -{-क्त्वा (त्यप्‌न्=्य) ! शब्दार्थ --शब्दशास्त्रमु--वाडुमय । अनन्तपारसु अनन्त पारया सीमा बाला, असीम । किलर निश्चित रूप स । फल्पु-नि सार वस्तु, तुप या मूषो, छिलका । हिं० अनु० --वाइमय निश्चित रूप से अपरिमित है और जीवन थोडा है तथा बबिनच्न भी बहुत हैं, अत नि सार अश को छोड कर उसी प्रवार (शास्त्रा का) सार ग्रहण कर लेना चाहिए, जिस प्रकार हस जल के बीच म से दूध ग्रहण कर लेते है। विवाप,--इस लोक मे समानायक यवा और इव' का प्रयोग होने से ब्यथ की पुमरावृत्ति होगई है। तदब्राध्ति विष्णुशर्मा नाम ब्राह्मण सकलझास्त्रपारगमइछावससदि क्षब्ध- कीति । तस्मे समपयतु एवानू ॥सा नून प्राक्‌ प्रवुद्धान्‌ करिप्यति। इति ।स राजा तदाकप्य विष्णुशर्मागमाहुय श्ोवाच--भो भगवन्‌, मदनुप्रह्मथमेतावथ- शास्त्र प्रति द्रारययानन्यसदृश्चान्‌ विदधाति तथा कु । तदाह त्वा शास्रतशतेम योजविष्यामिं 1 सपरा --सफलसशास्त्रपारगर सकलानि च तानि चास्त्राणि (करमंघा०), तेयु तेघा वा पारगम (तत्यु०) | छात्रससदि--छात्राणा ससद्‌ तस्याम्‌ (तत्यु०) । लग्यकीति = ल्वा कोति येनस (बहु०)। मदनुग्रहायमू=- मम अनुग्रह मदनुग्रह, (तस्‌ >), चस्मे इद्‌ मदनुश्रहयम्‌ (ठप्पु०) अनन्यसहज्ान्‌ अन्येन सदसा, (तप्पु०), न अन्यप्तदशा भन यस्तदा तानु (নস, লৎবুণ্) | श्गपतनक्चतेन == शासनाना झतम्‌ तेन (तत्पु०) । बया० --पारगम +>पार--गम्‌--खच्‌ (अ), शब्द और धातु के बीच में मुम्‌ (म्‌) का वागम । प्रबुद्धानलत्प्र+बुधूर्न-क्त (त), प्रत्यय के 'त! को घे,




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