भाषा वैज्ञानिक निबंध | Bhasha Vaigyanik Nibandh

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Bhasha Vaigyanik Nibandh by श्रीनारायण चतुर्वेदी - Srinarayan Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“अधायुरिखियारामो मोघ॑ पार्य स जीवति / रात-दिन पाप करने वाला और इंद्रियो को ही सुख देने वाला, है पायं ! व्यथं ही जीवन वितात्ता है । उक्त इलोक के इद्विपाराम शब्द मे इद्रिय और आराम शब्द विद्यमान हैं। इस आराम का वही अर्थ है, जिसे हिंदी के कोशकार बड़ी शोध के बाद बताते है कि यह शब्द मूल मे फारसी है। वेदो मे रास का अर्थ 'रात' है, जिस समय हम आराम करते है । अवेस्ता भौर फारसी दोनों ही आयं भाषाएं होने कै कारण उनमे भाराम शब्द चलता है | कैधी लिपि मे न होने पर भी हम आराम शब्द के विषय में भ्रम में ही पड़ गए, जिसके आधार पर हिंदी-कोश आराम को फारसी का शब्द बताते है और इन महानुभावो ने भगवान्‌ के मुँह से जो आराम शब्द निकला, नित्य पाठ के पर भी, उसका अथं ही तही समज्ञा । दूसरे शब्दो मे हम यह्‌ कट्‌ सकते हैँ कि हमारे कोशकारो ল অঙ্ক ই আহাদ ছার की हृत्या ही फर डाली । यहु शब्दायं कां विचित्र प्रयोग है । भाषा का एक अपरिवर्तनशील निगम यह है कि शब्दों की ध्वनि और अथं निरंतर बदलते है। हम जिसे बसन्‍्त कहते हँ वह्‌ फारसी मे बहार हो गया भौर हुम निसे वशिष्ठ कहते है वह्‌ फारमी मे बहिस्त हो गया । देखिए, हमारे वशिष्ठ महान्‌ ऋषि हो गए है और इसकी व्युत्पत्ति वश “चमकना' 'सुदर होना' है। फारसी बहार की व्युत्पत्ति भी इसी बशू से है। जिसका मवेस्ता के समय धह, रूप बन गया था । वसन्ते भर बहार की व्युतपत्तियो का भी वही रूप है। अब वशिष्ठ और बहिस्त के भी अर्थ बदल गए है । इससे आप समक्ष गए होगे कि ध्वनि भौर शब्दाय के रूप निरंतर बदलते रहते है । भेप्रेजी 'बैस्ट' इन्ही वशिप्ठ और बहिस्त का रूप है, जिसका अर्थ “सबसे अच्छा' है। एक कविता लीजिए, कबीर ने लिखा है : रंगो को नारंगो कहे, नगद माल को सोया । चल्तती को गाड़ी कहे, देख कबोरा रोप्य ॥ कथीर को नारंगी देखकर आश्चर्य हुआ ॥ जिसे हम नारंगी या अर्थ के अनुमार बिना रंग का कहते हैं वह स्पष्ट ही रंगीन है तथा जिसे हम गाड़ी अर्थात्‌ 'गाड़ दी गई' कहते हैं, वह गाड़ी नही होती, वल्कि चलती है। कबीर यह नही जानते थे कि नारंगी शब्द ईरान से स्पेन जाकर नौरांज हो गया । यह नोरान यूरोप-भर में फैला । इसका आदि आयें रूप नरंज था। यह भारत ১৩ के




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