भारत का पुनर्बोध | Bharat Ka Punrbodh

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Book Image : भारत का पुनर्बोध  - Bharat Ka Punrbodh

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about धर्मपाल - Dharmpal

Add Infomation AboutDharmpal

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
बाद एक आनेवाली पीढी को देते गए। इस गुलामी की मानसिकता के आगे अपनी विवेकशील और तेजस्वी बुद्धि भी दब गई। यूरोपीय, या यूरोपीय जैसा बनना ही हमारी आकाक्षा बन गई। देश को वैसा ही बनाने का प्रयास हम करने लगे। अपनी सरचनाएँ, पद्धतिया, सस्थाएँ वैसी ही बन गई। गाधीजी १९१५ मे दक्षिण अफ्रिका से भारत आए तब भारत ऐसा था। उन्होने जनमानस को जगाया, उसमे प्राण फूके, उसकी भावनाओ को अपने वाणी और व्यवहार मे अभिव्यक्त कर, भारत के लिए योग्य हजारो वर्षो की परम्परा के अनुसार व्यवस्थाओ, गतिविधियो और पद्धतियो को प्रतिष्ठित किया और भारत को फिर से भारत बनाने का प्रयास किया। स्वतत्रता के साथ साथ स्वराज को भी लने के लिए वे जूझे। परतु स्वतत्रता मात्र सत्ता का हस्तान्तरण (ाशोऽधि ग 20४९) ही बन कर रह गया। उसके साथ स्वराज नहीं आया। सुराज्य की तो कल्पना भी नहीं कर सकते | आज की अपनी सारी अनवस्था का मूल यह है। हम अपनी जीवनशैली चाहते ही नहीं है। स्वतत्र भारत मे भी हम यूरोप अमेरिका की ओर मुँह लगाये बेठे है। यूरोप के अनुयायी बनना ही हमे अच्छा लगता है। परन्तु, यह क्‍या समग्र भारत का सच है ? नहीं, भारत की अस्सी प्रतिशत जनसख्या यूरोपीय विचार और शैली जानती भी नहीं और मानती भी नहीं है। उसका उसके साथ कुछ लेना देना भी नहीं है। उनके रीतिरिवाज, मान्यताए, पद्धतिया, सब वैसी की वैसी ही है। केवल शिक्षित लोग उन्हे पिछडे ओर अधविश्वासी कहकर आलोचना करते है, उन्हे नीचा दिखाते है और अपने जैसा बनाना चाहते है। यही उनकी विकास और आधुनिकताकी कल्पना है। भारत वस्तुत तो उन लोगो का बना हुआ है, उन का है। परन्तु जो बीस प्रतिशत लोग हैं वे भारत पर शासन करते है। वे ही कायदे-कानून बनाते हैं और न्याय करते हैं, वे ही उद्योग चलाते हैं और कर योजना करते है। वे ही पढाते है और नौकरी देते हैं, वे ही खानपान, वेशभूषा, भाषा और कला अपनाते है (जो यूरोपीय है) और उनको विज्ञापनो के माध्यम से प्रतिष्टित करते हैँ । यहो के अस्सी प्रतिशत लोगो को वे पराये मानते है, बोझ मानते हैं, उनमे सुधार लाना चाहते है और वे सुधरते नहीं इसलिए उनकी आलोचना करते हैं। वे लोग स्वय तो यूरोपीय जैसे बन ही गए है, दूसरो को भी वैसा ही बनाना चाहते हैं। वे जैसे कि भारत को यूरोप के हाथो बेचना ही चाहते हैं, जिन लोगो का भारत है वे तो उनकी गिनती मे ही नहीं है। इस परिस्थिति को हम यदि बदलना चाहते हैं तो हमे अध्ययन करना होगा - पन्द्रह




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now