श्रमणोपासक | Shramanopasak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४) को, वहा के परमान-द को, आत्मसाक्षी से हस्तामछफ की तरह देखने सग जति ह 1 उसी केवलालोक भे जो अनन्तानन्व सूरयो से भी मधिक प्रकाशवान है वे ससार के स्वरूप को भो देखते हैं झौर सतार में परि- भ्रमण कराने वाली ग्रथियो का শী অন্তু साक्षात्कार होता है | बाह्य एव भ्राम्य तर जशुद्धियो से ग्रथिया बनती जाती हैं । जैसे सजीव या निर्जीव किसी भी पदार्थ के प्रति आसक्त हो जाना, उत्त झ्ासक्ति के भाव को जमाये रखना, उस पदार्थ प्राप्ति के लिए चितन करना कि बह मुझे ही प्राप्त हो, यदि वह प्राप्त न हो तो उप्तके लिए प्रात्तिध्यान परना, यह भ्रशुद्धि का एक रूप है ॥ इसी प्रकार की प्रशुद्धियों से भव परम्परा का चक्र चलता रहता है) इसीलिए प्रमु महावीर ने मभ्य पार्मामा को निर्ग्रंय बनने का उपदेश दिया । নিয়ঘ কা त्तात्पयं होता है 'विग्रत ग्रथात्‌ वाह्यास्यस्तरझंपा- दिति निग्रयः 1” अर्थात्‌ बाह्य झाम्यन्तर रूप ग्रंथ ( ग्रन्थ ) से जो निकला हमरा (रहित) है वह निम्नेन्य है । निम्रथ भवस्था के विकास मे संघ की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सघ में रहकर भव्य आत्माएं अपने जीवन के चरम उत्कर्प/ सदय बो प्रप्त कर पाती हैं॥ साधना गत प्रत्येक साधु साध्वी को पपने श्रमणत्व को सुरक्षित रखने हेतु जागृत/|पजग रहने में, भोतिक बांघी में अपने संयमी भावो को अचल/अडोल[अकप्प “बनाये रखने भे, समय परियतन के लुभावने भाकर्षण से बचाने मे, सघ कवच रूप हैँ, टापत रुप है । এ... इससे यह भलीमाति स्पष्ट है कि जीवन की चरमोत्कप प्राप्ति में सघ सशक्त भाष्यम है। संघ की गरिमा फे विपय मे यदि वित्वार' शे शो जानना चाह तो नदो सूत्र गाया ४ से १६ तक देस समते हैं । एकता हे सूत्र में पिरोने घाला सघ साधना करने वाले समी साधवा एवं ध्मान नही होते। कोई येय से लपुवय वाले होते हैं, कोई परिषयव व धुद्धावस्था वाले भी होते हैं, बोढिग क्षमता फो इप्डि से मद भति याले भी होते हैं. भौर प्रशा पष्य भौ होते ह ! उन स्वको साधना के क्षेत्र मैं भावात्मक एकदा फे सूत्र में विरोपे रखते दासः संघ ही होता है ॥




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