ज्ञानार्णव प्रवचन भाग - 3 | Gyanarnav Pravachan Bhag - 3

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Gyanarnav Pravachan Bhag - 3 by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाथा १४० ११ नहीं रहती ओर परक्ी ओर आफषेण रहता है उस जीवफा टिकाब फहीं नहीं हो सकता। जिस पदार्थमें अपता टिकाव लगाया बह पदार्थ दी टिकाऊ नहीं है और फिर उस पर फिया हुआ उपयोग भी टिकाऊ नहीं हैं इसी कारण परके झालम्वनमें भी आनन्द नही प्राप्त होता । स्वरूपके परिचय व श्रपरिचयका फल--जो पुरुष निजस्वरूपको जानले গত জারন্কহ उस ही तत्त्वभूत स्वरूपका ज्ञान वनाये रे तो रेसे ही श्चन्त' श्राचरणके कारण यह जीव शान्त हो सकता दै, संसारके संकटोको दृर कर सकता है । लेकिन ऐसा न करके यह जीव कर्मासि ठगाया हृद्या, राग- हेष मो्टसे ठगाया हृच्या होकर इस ससारमें निरन्तर परिभ्रमण करता रहता है | कोर परिश्रमणकी दहै क्या कि किंस दिनसे किस क्षणसे परिभ्रमण हो रहा है? यदि कोई दिन क्षण नियत करदे तो इसका अथे यह है कि इसके पहिले में संघारी नथा। विभाषधान न था। संसखारी न था तो किसी भी प्रकार ये विभाव आ ही नहीं सकते थे । द्रब्यकर्म व भावकर्मका श्रनादि निमित्तनेमित्तिक सम्बन्ध--क्र्मका व भाव চ্চা अनादिसे ही ऐसा निर्मित्तनेमित्तिक सम्बन्ध चला आ रहा है; क्‍या वताया गया था; पहिल्ले कम था पद्दिले या जीवका भाव था पहिले ? कसी विचित्र अनादि सतति है ? चूँकि भाव हुए विन्ता कम नदीं होते अतएव भाव पद्िले थे और कम बादमें किया और बद्‌ जावो, फर्मोके उद्यके লিলা ये भाष नहीं हुआ करते) अतएव कर्म पहिले थे फिर उसके उदयं भाष हुए। वे कम भाव कम पूरक हुए। वे भाव भी द्रव्यकमंपू्वेक हुए। यों झनादिसे दी यह चक्र लगा आ रहा है । तब इसमें हमें फोर समाधान नहीं हो सकता कि पहिले भाव थे या कम थे। उसका ही श्रथ यद्द हुआ कि यह्द सब अनादिसे चला आ रहा है। ज़ेसे मनुष्यके पिता; ये अनादि परम्परा से चले भा रहे हैं। कोई पिता ऐसा नहीं है कि जो पिताके बिना दी उत्पन्न हो गया हो । सकटसोचिनी भावना--विधिसे ठगाया जाकर क्मोसि वद्ध होकर यह जीव इस संसारम केला दी अज्ञानी मोटी बिपयासक्त वन्न बनकर यह जी्र भ्रमण फरता चला श्ना रहा है । उस समस्त भ्रमण सकटसे छुंटकारा पाका सुगम उपाय है यह्‌ एकत्वभात्रना । अपने आपको चढला सोच ल; सारे फमट लो समाप्त हो गए । यों एफत्वभावनाके प्रसाद से यह जीच मोक्षमार्गमें बहता है और शान्तिका अधिकारी द्वोता है। हम आप भी अपनेको अकेला ही सोच लेंगे तो इस चिन्तबनसे अनेक सकट दूर हो जाबेंगे।' यदेक्यं मनुते मोहादयमर्थे: स्थिरेतरे.। तदा स्व स्वेन वध्नाति तद्धिपत्त शिदी भदेत्‌।४१॥




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