रमणीय वृक्ष 17 वी शताब्दी मे भारतीय शिक्षा | Ramniya Vraksha 17 Vi. Shatabhi Mai Bharatiya Shiksha
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
440
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बाद एक आनेवाली पीढी को देते गए। इस गुलामी की मानसिकता के आगे अपनी
विवेकशील और तेजस्यी बुद्धि भी दब गई। यूरोपीय या यूरोपीय जैसा बनना ही हमारी
आकाद्या वन गरई। देश को वैसा ही मनाने का प्रयास हम करने लगे] अपनी सरधनाएं
पद्धतिया सस्था् वैसी टी यन गई।
गाधीजी १९१५ में दक्षिण अफ्रिका से भारत आए तब भारत ऐसा था। उन्होंने
जनमानस को जगाया उसमें प्राण फूके उसकी भाषनाओं को अपने वाणी और व्यवहार
में अभिष्यक्त कर भारत के लिए योग्य हजारों वर्षों की परम्परा के अनुसार व्यवस्थाओं
गतिविधियों और पद्धतियों को प्रतिष्ठित किया और भारत को फिर से भारत बनाने का
प्रयास किया। स्वतत्रता के साथ साथ स्वराज को भी लाने के लिए वे जूझे।
परतु स्वतत्रता मात्र सत्ता का কলাল্লততা (জারা 07০৩0) ঘী অল কত্ত
गया। उसके साथ स्वराज नहीं आया। सुराज्य की तो कल्पना भी नहीं कर सकते।
आज की अपनी सारी अनवस्था का मूल यह है। हम अपनी जीवनशैली चाहते
ही नहीं हैं। स्वतत्र भारत में भी हम यूरोप अमेरिका की ओर मुँह लगाये मेठे हैं। यूरोप के
अनुयायी बनना ही हमें अच्छा लगता है।
परन्तु, यह क्या समग्र भारत का सच है ? नहीं भारत की अस्सी प्रतिशत
जनसख्या यूरोपीय विचार और शैली जानती भी नहीं और मानती भी नहीं है। उसका
उसके साथ कुछ लेना देना भी नहीं है। उनके रीतिरिवाज मान्यताए पद्धतिया सब
वैसी की वैसी ही हैं। केवल शिक्षित लोग उन्हें पिछड़े और अधविद्वासी कहकर
आलोचना करते हैं उन्हें नीचा दिखाते हैं और अपने जैसा बनाना घाहते हैं। यही उनकी
विकास और आधुनिकताकी कल्पना है।
भारत वस्सुत तो उन लोगों का बना हुआ है उन का है। परन्तु जो वीस
प्रतिशत लोग हैं वे भारत पर शासन करते हैं। वे ही कायदे-कानून बनाते हैं और न्याय
करते हैं ये ही उद्योग चलाते हैं और कर योजना करते हैं। वे ही पढाते हैं और नौकरी
देते है ये ही खानपान वेशभूषा भाषा और कला अपनाते हैं (जो यूरोपीय हैं) और
उनको विज्ञापनों के माध्यम से प्रतिष्ठित करते हैं। यहाँ के अस्सी प्रतिशत लोगों को वे
पराये मानते हैं बोझ मानते हैं उनमें सुधार लाना चाहते हैं और वे सुधरते नहीं इसलिए
उनकी आलोचना करते हैं। वे लोग स्वय तो यूरोपीय जैसे बन ही गए हैं. दूसरों को भी
दैसा ही बनाना चाहते हैं। वे जैसे कि भारत को यूरोप के हाथों बेचना ही चाहते हैं जिन
लोगों का भारत है वे त्तो उनकी गिनती में ही नहीं हैं।
इस परिस्थिति को हम यदि बदलना चाहते हैं तो हमें अध्ययन फरना होगा -
দল
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