गगनान्चल - अंक 2 | Gagnanchal - Ank 2

Gagnanchal - Ank 2 by गिरिजा कुमार माथुर - Girija Kumar Mathur

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about गिरिजा कुमार माथुर - Girija Kumar Mathur

Add Infomation AboutGirija Kumar Mathur

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
नयी हिंदी कविता के ' सहोद्योगी' अल्लेय १५ आकाशवाणी लखनऊ में पदाधिकारी थे। और ढा. रामविलास शर्मा लखनऊ विश्वक्यालय के अग्रेजी विभाग में अध्यक्ष थे। `प्री-रेफलाइटस' पर उन्होंने अंग्रेजी में पी.एच. डी, की थी। 'संघर्ष' के १९४१ के रवीद्रनाथ ठाकुर की मृत्यु के बाद विशेषांक का संपादन उन्होंने आचार्य नरेंद्रदेव जी के लिए किया था। में तब माधव कॉलेज उज्जैन में तर्कशास्त्र पढ़ाता था। गाँधी जी के आश्रम से मेरा संबंध सन १९४० से हुआ था। मेरा सन १९४२ के आंदोलन के अनेक भूमिगत कार्यकर्ताओं से संबंध था। जेल में गये लोगों के परिवारों की हम सहायता करते थे। धन से, किताबों से, अन्य आवश्यक वस्तुओं से। यह गुप्त कार्य करते समय में साम्यवादियों के साथ हूँ. यह बताना जरूरी था, जिससे पुलिस की निगाह हम पर उतनी न रहे। एम.एन, राय के ग्रंथ तक मैंने फ्हें, और उनके क्रांतिकारी मानवतावाद' से में बहुत आकृष्ट हुआ। मराठी साहित्य से मेरा घनिष्ठ संबंध था--उनमें मेरे कई प्रिय लेखक 'रायवादी' थे और हैं। यह सब बताने का हेतु यह हे कि ' तार-सप्तक केसे बना, यह पाश्वपूमि समक्ष में आये। पहले विचार यह हुआ कि मध्य प्रदेश के वे कवि, जिनका कोई कविता-संग्रह तब तक नहीं छपा था, उनकी कविताओं का चयन-संकलन कर मराठी 'रविकिरणमंडल' के सात कवियों ('सप्तर्षि, जिनमें एक अरुधती मनोरमाबाई रानडे थीं) जैसे संग्रह अलग- अलग छापे जायें। नेमिचद्र बंगाली अच्छी जानते थे। वे 'चार पोह्शाय एकटी' संप्रह छोटी-छोटी पुस्तिकाओं की तरह लाये, बुद देव बसु, सुभाष सुखोपाध्याय आदि के। ओर तब नए हिंदी कवियों की अलग-अलग पुस्तिकाएँ छापने का तय हुआ। नेमिचद्र, मुक्तिबोध, में तो थे ही, 'आगामी कल' पाक्षिक के संपादक प्रयागचद्र शर्मा, वीरेंद्रकुमार जैन, गिरिजाकुमार मायुर मिलाकर सात हो जाते। कवयित्री शकुन्त माथुर को हम ले सकते थे। पर हसी बीच (स्व.) भारत भूषण अग्रवाल ने, जो नेमिचद्र के ' सादू' ये (दोनो की पन्नियाँ सगी बहने हैं) ओर कलकत्ता में 'अज्लेय' जी के संपर्क मे थे यह प्रस्ताव रखा कि सब लोग अपना- अपना छपाई का खर्चा दें तो एक सहकारी प्रकाशन हो जाये। मुद्रण आदि का भार वात्स्यायन जी ने अपने ऊपर लिया। नाम मैंने 'सप्तक' सुझाया था, बाद में 'तार' वात्स्यायन जी ने जोड़ा और प्रयाग वीरेंद्र जैन को पता नहीं क्यों उनमें नहीं लिया। पहले जो विचार मालवा-मध्य प्रदेश तक सीमित रखने का था, उसमे भारत पषण जी आ गये ओर ढा. रामविलास शर्मा के ` व्य॑ग्यो सं तब अलय बहुत प्रभावित थे उनको भी लेने का तय हो गया। हसीलिए वीरेंद्र कुमार और प्रयाग छूट गए। पाँच सो ही प्रतियाँ छपी थीं। मैंने तो पैसे भी नहीं भेज थे। शायद वात्स्यायन जी ने ही मेरी ओर से दिये थे। बाद में यह पुस्तक ऐतिहासिक महत्व की हो गयी। यह संग्रह छायावाद ओर प्रगतिवाद दोनों प्रचलित शैलियों से भिन्‍न था, यद्यपि प्रगतिशील सामाजिक प्रवत्ति की कविताएँ उसमें थीं। मैंने ही वात्स्यायन जी डॉ. देवराज, नलिन विलोचन शर्मा के साथ सन १९४८ में आल हंडिया रेडियो, हलाहाबाद में आधुनिक हिंदी कविता पर रेकाई की गई 'परिचर्चा' লী ললিল जी को ` प्रपद्य वादी. वात्स्यायन को 'प्रयोगवादी' और हॉ. देवराज को दार्शनिक व्यक्तिवादी कवि' के नाते परिचय दिया। 'प्रयोगवाद' शब्द का पहला प्रयोग यो मैने किया, ओर यह नाम हस तथाकथित ' आंदौलन' से विपक गया। छद, माषा, स्वरालोढन जसे गिरिजाकुमार माथुर ने ' तार सप्तक कं पहले वक्तव्य म' विस्तार से लिखा है), विषय (' में और खाली चाय की प्याली), ' मध्यक्ति' जैसे मेरी कविताएँ, पेरोडी (जैसे रामविलास शर्मा की 'हाथी घोड़ा पालकी' में 'सत्यम शिवप्त सुंदम' का मजाक उड़ाया गया था), सानेट, अंतर्गत एकालाप (मुक्तिबोध की ब्राउनिंग जैसी 'इटनेल सालिलोकी) आदि प्रयोग तो हसमें थे ही। पर ' प्रयोग का 'वाद' कमी बन न सका-- वह ' अज्लेय' और उस कविता के अलीबाबा के चालीस अनुयायियो' तक গলি আনি আপা ॥




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now