जनम कैद | Janam Kaid

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Janam Kaid by गिरिजा कुमार माथुर - Girija Kumar Mathur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जनम कंद २४५ | गला भर श्रातादहै ] तो सत्याकी यह हालत. कैसे बरदाश्त होती उसे ? सतीक्ष--वाबूजी, आप फ़िक्र क्यों करते हैं, हम लोग तो मौजूद हैं। उनकी देख-रेखकी आप कोई चिन्ता न करें, आपकी तबीयत तो ठीक ইল? पिता--अब क्‍या ठीक होगी सतीश ! [ हँसकर धीरेसे | यह घाव तो शायद अब ज़िन्दगीके साथ ही जायेगा। बुढ़ापेमें यह भी देखना नसीब था । भाग्यने उम्रपर जो मुहर लगा दी है वह तो मिट नहीं सकती । यह देखो---[ लिफ़ाफ़ा उठाता है | यह खाकी लिफ़ाफ़े आज दो सालसे लगातार चले आ रहे हैं। हर बार लगता है जैसे महेनद्रकी ख़बर अब छलाये ''अब लाये खेकिन [ ठहरकर | सबमें एक ही मज़मून होता है । दो सालसे कोई फर्क नहीं ˆ इन ल्िफाफोमे सत्याको जिन्दगी सतीक्ष- बात पलटकर | अरे हाँ, वह तो में कहना भूल ही गया था वावूजी ˆ चीनके कौसल जनरखका खत आया है'”'उन्होंने निजी तौरपर हमे मदद देनेका वायदा किया हैमं काफी दिनोंसे वहाँ से पत्र-व्यवहार कर रहा था । | पिता--- ज्ञरा स्वस्थ होकर | क्‍या लिखा है उन्होंने''मुझे तुमने पहिले नहीं बताया | कहाँ हैं वह खत सतीद्--अभी दिखाता हूँ [ पोर्टफोलियोसे हूं ढ़कर खत निकालता है श्र खोलकर वृद्धके हाथोंमें देता है | लिखा है कि हम पूरी तरह चीनमें भी ढंढ़नेकी कोशिश करेंगे'''शांघाईके पास फ़ौजियों का एक कंसन्ट्रेशन कैम्प था। वहाँ शायद पता लग जाय | मेंने उत्तर दे दिया है । पिता--] पुनः उदास होकर | दे दो सतीश। लेकिन जैवाब में जानता हं । [ ससि भरकर | जवाबमें जो कुछ होगा वह मुझे अभीसे




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