प्रतिज्ञा | Pratigya.

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Pratigya. by नृसिंह राजपुरोहित -Nrisingh Rajpurohit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आयो स्हारी ज्यमण जायो दीर चूनड-तो ल्यायों रेसभी जो । मेल तो छाव मरीज ततौ तो तोला त्तीम भी श्रोई, तो हीरा खिर जाय मअरू तो हाथ पचास जो নানী ঈ লাঙ্যা জামী ভাত से'रा में बाजी सैनाई जी आयो म्हारो जामण जायो बीर चूनड तो ल्यायो रेसमोजी | पिछली साल मैं श्राया तव बैठा बैठा वीरा सुन रहा था और बाई गा रही थी । उस बक्त न काने गाते गाते क्या हुआ सो कण्ठ मर्या गया झौर साँखें भर গাই । मने उसका हाध पकड कर कहा, एसा क्यो वाई २ तो बोली-- 'कुछ नहीं भाई, यू' ही न जाने मन कैसा हो गया तुम रोज बीरा गवति हो, पर कौन जाने जिस दित काम पड़ेगा मैं रहूंगी कि नहीं ।* “तुम ऐसा सराब संचती ही क्‍यों हो ए मैंने कहा । बयु' ही रे माई, इस शरीर का क्‍या मरोंसा | आज है श्ौर कल नहों । दूसरे जिसे जिस चीजे कौ $च्दा ज्यादा होती वह है पूरी नही होती है ।' गले में काटे से अटकने लगे और तोम पर कौए जोर जोर से बोलने জট । कोष काव | किसनू का ध्यान आया वह कछिघर मंशा ? रसोई मे धु बैटी माग काट रही थी । उसे पूछा तो पता प्रढा कि प्रास के कमरे में सोया होगा | जाकर देका तो আমন में फटे पुराने कपडे विद्या कर सोया या और बाहों में क झोरण लिये हुआ था। मैं सड़ा खडा उसके मासूम चेहरे को बाफी समय तक देखता रहा | बह रह रह कर अपने छोटे-छोटे होठों को शामिल करके नींद में ही स्तनपान की आवाज़ कर रहा था । धाएू बोली--'यह रोज रात को ऐसे हा सोता है मामाजी 1 यदि बाई प्रत्मिति | रष




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