संस्कृत व्याकरण - दर्शन | Sanskrit Vyakaran Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सस्कत व्याकरणदशन की उपलब्ध सामग्री / १३ धाघक विशेषविधिम यत्रादीहदात 1१ कात्यायन ने अपन वातिकों मे विशेषणवाद प्रत्ययाथ विशेषणवाद सामानाधिकरण्यदाद अथनियमवाद प्रकृतिनियमवाद भादि वादों का समावेश दिया और पाणिनि के अनेव सुत्रों का इनके आधार पर विवेचन क्या । प्राचीन वैयाकरणो मे हेलाराज ने वाहिको का विशेष अध्ययन किया था 1 उ होने वातिवो पर वातिको मेष नामक ग्रय भी लिखा था। वावयपदीय के प्रकीणक कांण्ड वी व्यारया करते समय हेलाराज उन वातिका का उत्लेख बरते चलते हैं आश्रय भू हरि ने लिया है । तृतीय काण्ड का वत्तिसमुद्रेश वात्यायन के कुछ वातिका की व्यारयामात्र है । हेलाराज ने वातिकों के उद्धरण दे देकर इसे स्पप्ट कर दिया है। इससे बढ़कर कात्यायत की दाशमिक देन का सूचक ओर क्या प्रमाण हो सकता है संस्कृत याकरणदशन को सस्कृत भाषा को सपूण वाइमय को कात्यायन की एक विशेष देन है और वहूं है उनकी वाक्य की परिभाषा । पतजलि ईसबी पूर्व द्वितीय शताब्दी पतजलि के महाभाष्य की उपमा सागर से दी जाती है । वह सागर वी तरह उत्तान है। सागर की त्तरह अगाघ है । सागर की तरह रत्न छिपाए है । भत हरि की हष्टि म पतजलि है । महाभाप्य संग्रह वा प्रतिकचुक प्रतिनिधिकल्प है और सभी यायबीजों वा भधिष्ठान है. कृतेश्प पतजलिना गुरुणा तीथदर्शिना ।. सर्वेपा यायवोजानों भहामाध्ये निव घने ॥ सप्रहप्रतिकलचुके यांयबीज शब्द पर टिप्पणी करते हुए पुण्यराज ने लिखा है तत्र भावय न केवल ब्पाकरणस्य निव घनम यावत सवंधा याथबीजानां । गतएव महूत घावब्देन सिशेष्य सहासाध्यमित्युच्पते लोके । ७ पुण्यराज ने पुन लिखा है. महामाध्य हि बहुदिघि विद्यावादवलसापं स्यवस्थितम ५ अर्थात्‌ महाभाप्य में अनेक विद्यावाद दशनप्रवाद है । जो कुछ वातिको मे है वह सब तो महामाध्य में है ही बहुत कुछ अयमी है। इसलिए महाभाष्य याकरण और व्याकरणदशन दोनो वा आकर ग्रथ है । महाभाप्यकार की अलग से देन बताना कठिन है। उ होने जो कुछ कहा है सूती और वातिव के भाष्य के रूप में वहा है। जिनके भूल सूठ और वातिको में नहीं हैं वे भाप्यकार की दन मानि जा सकते हैं। अथवा जहाँ भाष्यकार का और वातिववार से विरोध है व सब मौलिक विचार महाभाष्यकार के हैं। प्राचीन टोकाकारो ने ऐस सब स्थत चुन रय हैं शेर मदाभाध्य प्रदीप ५1३७२ श६ वाक्यपटीय रद र७ वाक्यपदीय टीका १८ पुण्यराज बाकयपदीय राइ८८




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