भोज - प्रबंध | Bhoj Prabandh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द ` भोजमग्रवन्धः शिरश्चान्ते पुरमानेतन्यम्‌ः इति । राजा महल क्यो निर्जन कराके वत्सराज से बोला-- प्रसन्न होकर भी राजां मपने सेवको को केवर मान देता है, कितु संमादित सेवक तो अपने प्राण देकर भी उसका उपकार करते हैं । सो तुम्हें उचित हैं कि तुम भोज को रात के पहिले पहर में भुवनेश्वरी- वन में मार डालो और उसका सिर अंतःपुर में ले आभो | स चोत्थाय नृपं चत्याउइड़्--दिवादेश:ः प्रसाणम्‌ | तथापि सचल्ला- लनाक्किमपि वक्तुकामोऽस्मि । ततः सापराधमपि मे वचः ज्ञन्तव्यम्‌।. भोजे द्रव्यंन सेनावा परिवारो वलान्वितः। परं पत्‌ इवास्तेऽधथ स हन्तव्यः कथं प्रभो ॥ १८ ॥ पारम्पय इवा सक्तस्त्वत्पाद उद्रस्भारः। तद्धे कारणं नेव पश्यामि नरपपुद्गवः ॥ १६ ॥ | उसने खड़े होकर राजा के संमुख विनत होकर कहा -- (महाराज की आज्ञा चिरोघार्यं है, तो भी आपके लाङ्-प्यार के नाधार पर कुछ निवेदन करने की , इच्छा करता हूँ । सो अपराध युक्त होने पर भी मेरे निवेदन की क्षमा करें । भोज के पास न घन है, न सेना है, न वलयुक्त परिवार है। वह त्तो . आपका विलकुल बालक जसा है। सो हे स्वामी, उसका मारा जाता क्‍यों उचित है? वह तो अशक्त जैसा है और आपके चरणों में आसक्त रहकर अपना पेट पालता है। सो है नृपश्रेप्ठ, उसके वध में कोई कारण तो नहीं दीखता । ततो राजा सवं प्रातः सभायां प्रवतत दृ्तसकथयत्‌ । स च श्रुत्वा हसन्सा्- श्रैलोक्यनाथो रामोऽस्ति वसिष्ठो त्रह्यपुचकः। तेन राज्याभिषेक तु युदरूतेः कथितोऽभवत्‌ ॥ २० ॥ तन्मुहूर्तेन रामोऽपि चनं नीतोऽवनीं विना । सीतापहारोऽप्यमबद् रिच्चिवचनं वथा ॥ २१।। जातः कोऽयं च॒पशरे किचिज्ज उदरम्भरिः । यदुक्त्या मन्मथाका रं कुमारं दन्तुसिच्छंसि । २२ ॥ तव राजान प्रातःकाल समामे घटित सव इ्तातों को कह सुनाया । सुन कर हँसता हुआ वह ( वंगराज ) कहने छगा---




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