बाईसवीं सदी | Baisvi Sadi

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Baisvi Sadi by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सेबप्रामका बाग ९ -अब॑ मुझें साथ लेकर सुमेध उस मकानकी ओर चले। इतने में यकायक तोपके गोले-की-सी आवाज हुईं | पहले तो में चौंक गया, पीछे पूछनेपर माहूम हुआ, यह जलपानकी सूचना है। मेरी अनेक जिज्ञा- साओंमें एककी और वृद्धि हुई। मैंने देखा, उधरसे वे स्त्री-पुरप भी- जो काममें छगे थे-काम छोककर इसी मकानकी ओर चले आ रहे हैं | मकानके पास जाकर क्या देखता हूँ, साफ पानीके कित्तने ही नल लगे हुए हैँ । नहानेके छिए साफ जलके टव हैं । मकान बहुत स्वच्छ हें । तीन-चार वले-वके कमरे ह । एक हील ह, जिसमे उढ्-दो-सौ . आदमी बैठ सकते हैँ । कमरोंमें बहुत-सी कुर्सियाँ हैँ । .... मेने बल्े हॉलमें देखा, पाँतीसे कुसियाँ और मेज छगे हुए हैं । मेजों पर एक-एक तद्तरीमें सेव, केले अंगूर आदि कितनेही फल रखे हुए हें और गिलासोंमें भरकर दूध । हम सब स्त्री-पुरुपोंकी संख्या करीब एक-सौ थी। मेंने उतनी ही थालियाँ वहाँ देखकर पहले आइचये किया। क्या स्तर्या भी पुरुषोंकी वगल में बैठकर नाश्ता करेगी ? इतनेहीमें वे सब स्त्री-पुरुप भी आ मये । सवने स्मितमृख हो स्वागत किया। महागय ` सूमेधने उन्हें सम्बोधित करके कहा--- “साथियो, हमारे आजके अतिधिकी देखकर सबको बल्ी जिन्नासा है फिर हमारे जैसोंकी, जिनने एकाघ वात सुत ली है उत्सुकताका तो कोई लिसाव नहीं ! इसीलिए मेने अकेले ही सव सुन लेना अच्छा नहीं समझा, अभी तो सिर्फ इतना जान पाया हूँ कि हमारे विश्ववंधु जी १९२४ से ही, यहाँसे १०-१२ कोसकी दूरीपर जमे हुए थे, जहाँसे आज ही आा रहे हैं ।”




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