पक्षी और आकाश | Pakshi Aur Akash

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Pakshi Aur Akash by रागेय राघव - Ragey Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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योग्य 1” | “यही मैं भी पोचता था मंभले भैया ! ” मैंने कहा था । “व्याम तेरी बहुत प्रशंसा करता हूं 1” पिता ने मुझसे पूछा । “यदि थोड़ी भी करते है, पिता | तो क्या वही मेरे लिए भ्रयोग्य को दान के समान नहीं है ? ” मैने पूछा -। पता नहीं क्‍यों उत्तके नयन गीले हो गए थे । पज्जा श्रम्मां भी श्रा गई थी । ओर मां भी । | भेया धनदत्त ने कहा, “हमें इससे कोई ईर्ष्या वहीं है, पिता ! झ्रापको प्रारम्भ से ही इसपर अश्रधिक स्नेह रहा है । उसी स्वेह के कारण श्राप इसको. श्रपने स्नेह का केन्द्र बनाना चाहते थे । जितना घ्योन इसके लालव-पालन का श्रापने रखा है, उतना हममें से किसीका नहीं। | “यह तुम कहते हो ! ” पिता ने पूछा 1 + “हम नहीं कहते,” भैया घनदेव ने काटकर फहा, “नगर कहता है।” पिता ने माता की ओर देखा । परन्तु उन्होने. दृष्टि फेर ली । शायद वे नहीं चाहती थीं कि उनके तीनों पुत्रों को घर छोड़ना पड़े । ' । “तुम्हारा भाग्य तुमसे ऐसा कहला रहा है 1” पिता ने सहसा तीक्ष्ण किन्तु ` सधे हुए स्वर से कहा, “जिस दिन घनकुमार जन्मा था, उसी दिन श्रगोकवारिका में धन मिला था वे तीनोंही इस वात पर हंस पड़ ! पिता ने ्रार्चयं से देखा । “क्यों ? हंसते क्यो हो ?” “गपराध क्षमा करें । नागरिक तो कुछ और ही कहते ই” पिता को ज॑से भंटका लगा । “बया कहते हैं वे ईर्यालु! धनसर उनकी आंखों में इतना गड़ने लगा है कि उंसके वैमव से दग्व होकर वे उसके परिवार में ही कलह फैलाना चाहते ই! तीनों पुत्र चुप रहे। अन्त मे धनचन्द्राधिप ने कहा, “वे कहते हैं कि श्रेष्ठि घनसार अपने चौथे पुत्र के जन्मोत्सव पर उसके भाइयों को अपेक्षा कहीं भ्रधिक व्यय करना चाहते ये, जो वेसे अनुचित लगता। इसीलिए उन्होंने ही अशोक- वाटिका में घन गड़वाकर पज्जा दासीं के मुख से यह प्रवाद फलवाया या भ्रन्यथा ऐसी दासी कौन है जो उस-घन को लेकर भाग नहीं जाती ? पक्षी और झाकाश ० १७




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