राजस्थानी भाषा और साहित्य | Rajasthani Bhasha Aur Sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सामान्य परिचय इससे दोनों की एकता के साथ-साथ डिगछ की दो विशेषताओं--उसका अपभंदा की ओर झुकाव और वीर रस के लिए उसकी उपयुक्तता--का भी पता चलता हैं 1 (ल ) सरुभाषा भावेत्येके' (ग) इनके अतिरिक्त कवि ने बंशमास्कर में डिगल मापा के गद्य या पथ के साथ अनेक चार “प्रापों मरुदेश्ीया प्राकृति सिथित भाषा” लिला है। (२). मुंकी देवीप्रसाद की राजरसनामृत्त नामक पुस्तक से भी यही घात सिद्ध होती है : (व) पहली घारा में, जैसलमेर वे. प्रकरण में, जैसलरमर के पंड़ित व्यास सुर्यकरण के की सकल दी गई है । उसमें शात्दीजी ने 'डिगल', 'महभापा' व 'मरुबाणी' को एक ही भापा माना है. । (ख) तीसरी धारा में, उदयपुर के प्रकरण में, राणाप्रताप के विषय में लिखा है कि यह महाराणा कि थे काम पड़ने पर डिंगल भाषा में कविता कर छेते थे (ग) चौथी धारा में, बीकानेर के प्रकरण में, राठौड़ पृथ्वीराज के विपय में लिखा है कि यह पिंगल (प्रजभापा) और डिंगल (सरुभाषा)-दोनों भाषाओं में कविता करते थे । (३). पंडित रामकर्ण आसोपा ने “राजरुपक' की भूमिका में लिखा है कि डिंगल भाषा राजस्थानी भाषा है, इसीसे राजस्थान के कवियों ने अपनी राजस्थानी भाषा में कमिता निर्माण की है 1 (४). श्री उदयराज उज्वल अपने “घूड़सार' नामक काव्य को अपनी मातृभाषा (डिंगल) में रचित यततते हैं 1 (५). डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ने राजस्थानी के लिए 'डिगल' या “मारवाड़ी” नाम का प्रयोग किया है । (६). श्री नरोत्तमदास स्वामी ने भी राजस्थानी के लिए 'डिंगल' दाव्द का व्यवहार किया है । राजस्थानी मापा, मरुभाषा बौर डिगछ मापा की एकता से एक महत्वपूर्ण बात यह भी सिंद्ध द्वोती है कि प्रारम्भ में डिगल वोलचाल की भाषा थी ।. बाद में, बोलचाल भर साहित्य की भापा में अन्तर होता गया ओर डिंगछ का प्रयोग साहित्य की भाषा के लिए होने छगा। डिंगल चस्तुत: अपश्रंश शैली का हो विकसित रूप है। उसका राजस्थानी की काव्य-गत शैली विशेष के रूप में होता है. डिंगल का प्रयोग बाकी कमी समस्त राजस्थानी के लिए और 'कभी कभी चारण शंखी के लिए किया जाता है। “चरणों द्वारा प्रयुस्त राजस्थानी का साहित्यिक रुप “डिंगल” नाम से प्रसिद्ध रहा है' ।” चास्तव में अब डिंगल का प्रयोग चारण शैली के लिए ही रूढ समझा जाना चाहिए 1 श्री उदयर्सिह भटनागर ने लिखा है कि डिंगल राजस्थान में वोल- १... बंधभास्कर : चतुर्थ माग, पू० ३०७३ : रे... राजस्थान-मारती, माग र, अंक र, मारे, १९४९, पृ० भर: ६. “दोर सतसई” (सूयंमल सिन्नण)-प्राव्कयन, पृ ५, दंगारु हिंदी सण्डल, ९००५ ८ ४. स्व संपादित 'बेलि---“राजरथानी (डिगल) भाषा का सुप्रसिद्ध काम्य”-टाइटल पृष्ठ : ५... संपुक्त राजस्यान, वर्षे ६, संख्या ८, मार्च, १९५७, पुर दे ईद




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