प्रतिदान | Pratidan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Pratidan by रागेय राघव - Ragey Raghav

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about रांगेय राघव - Rangeya Raghav

Add Infomation AboutRangeya Raghav

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
एक कुत्ता आकर टिट्विम के भोजन को खाने लगा। इृष्णि कुमार झिल्लीवश्र उधर से निकला, उने देखा भी, रितु उसने कोड ध्यान नहीं दिया । वह श्रपने रास्ते चल गया । टिट्विम दौड़ा-दौड़ा योतिमत्सक के समीप पहुँचा जो इस समय वृषभो की सेवा मं लग्न था। उसके पास शालिपिर्ड नामक नाग खड़ा कुट्टी करके रख रदा था । मारिपा कषे पर बड़ा कलश जल से भर कर ला रही थी । नग्राय॑,? टिट्विभ ने पुकारा, 'श्रायै द्रोष और आर्य यज्षसेन आखेट से लौट आये ९? जाकर द्वंढ ले,” योतिमत्सक ने बृपभ को खूटे से बॉघते हुए कद्दा, मैं क्या सत्रके पीछे-पीछे लगा घूमता हूँ ? टिट्रिम ने कहा : देव क्षमा करें। और वह फिर दूसरी ओर दौड चला । आश्रम दूर तक फैला हुआ था | मध्य में णह ये । उनके चारों ओर वन था और बन के उपरांत पूवैकी शरोर खेत ये। वहीं बन के सप्राप्त होने के ध्थान में दासों के घर बने हुए थे । अधिकांश मिट्टी और लकड़ी के चने हुए। अंधा काक शूद्ध पुआल पर पड़ा था। वृद्ध था। प्रतिः स्वयं उसे वहीं भोजन दे दिया जाता, वह चैल की भाँति उसे चत्रा कर काफ़ी देर में खाता और फिर हाथ में लाठी लेकर सम्रस्त आश्रम में चक्कर लगाता । श्राश्रम के मग उसके मित्र ये । जच् वह चलता, वे उसे घेर लेते। काक प्रसन्न होकर उनको अपनी निध्यभ आँखों से देखने का प्रयत्न करता, फिर हाथ से टटोलता । जब महर्षि त्रिवची श्राश्रम में आये थे और उन्होने -जामत्व, तोत्तायन ओर कुनरवा नामक अथर्ववेद की शाखाओं का पाठ किया था, तच श्द्धखुन नले इसलिये काक को ही दूर चिठा दिया गया था कि वह -१२३-




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now