श्रीजैनप्रतिमा - लेखसंग्रह | Shreejainpratima - Lekhsangrah

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Shreejainpratima - Lekhsangrah by विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी - Vijayrajendra surishwarji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) प्रतिष्ठा करवाई अर्थ लेना पड़ता है । जहाँ प्रतिष्ठा हुई हो, अगर ग्राम का नाम भी दिया हो तब तो कोई प्रश्न ही नहीं चनता है । व्यचहारी, श्रेष्ठि के नामों की विचित्रता-- प्रथम बात जो यहों कहनी है वह यह है कि नामों में জাত লী लाल, चन्द्र, राज, सिद, दे, मरु आदि प्रस्यय होते हैं वे १६ मीं शताब्दि से पूर्व के नामों मे श्रायः नहीं मिलते, अर्थात्‌ नाम एफ-शब्दात्मऊ ही होते ये या रिषि जाते थे | एक-अब्दात्मझ नाम का रूप भी कहीं कहीं ऐसा विचित्र मिलता हैं कि इस विकाश के युग मे मी जिसका अर्थ और रूप समझना बड़ा कठिन हो जाता है । उम समय के पुरुषों और स्लियों के नामों के उच्चारण की ध्यनि उस युग के वातावरण की अनुमारिणी थी-यह ऐतिहासिक या पेज्ञानिक तत्व इन नामों की बनावट में ओत-प्रोत समाया हुआ है, या यों कहना चाहिये कि उस युग ने ही नामों की ऐसी एक-शब्दात्मक रचना की | दशवीं शताब्दी से मारत म यवनो के आक्रमणे का जोर वद्‌ चसा था! चासं ओर क्रोध, उत्सा, घृणा, जुगुप्सा, आक्रोश के भाव बदृते चले जा रहे थे, जिनका अन्त अकबर बादशाह के समय में जा कर होना प्रारम्भ हुआ | अकबर बादशाह के समये बाहरी आक्रसर्णों का अन्त पूर्णतः हो गया था और सर्वत्र




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