सदाचार - सोपान | Sadachar Sopan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
116
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about मोहनवल्लभ पन्त - Mohanvallbh Pant
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सदाचार নব
समाज के य अन्य मनुष्य को घायल करता है तो घायल
को तो कंप् होता ही है, पर आघात करने वाले को भी झागे
चलकर कमं कष्ट नही होता । वस्तुतः मानव मात्र ही नहीं
किन्तु प्राणि मात्र की एक्ता वा ज्ञान हौ सदाचार की नीव है।
कोमल-मति बालक पहले अपने माता-पिता और ग्रुएुजनों से
सदाचार की शिक्षा पाता है, फिर साधु-सन्तो एवं पुस्तकों
से । ग्रन्त में वह स्वयं अपने ही ज्ञान और भनुभव के झ्ाधार
पर यह निर्णय करने में समर्थ हो जाता है कि कौनसा कार्य
उसके लिये करणीय है--श्रच्छा है, भोर कौन द्करणीय--
बुरा । हमारी जिन इच्छाग्रों प्रथवा हमारे जिन विचारो शौर
कार्यों से दूसरों को सुख पहुंचता है, जिनसे समाज में एकता
स्थापित होती है, उन्ही को हम सत्कार्य प्रृष्य या सदाचरण
कहते हैं। भोर जिन इच्छाओं, विचारों श्रथवा कार्यों से दूसरो
को कष्ट पहुँचता है, समाज में फूट पड़ती है, परस्पर कलह
होता है, उन्हें हम पाप कहते हैं ।
दूसरों के साथ किस प्रकार भ्राचरण करना चाहिए--इस
बात की समभ प्रत्येक में नहीं होती । न उसके पास यह सव
जानने का साधन श्रौर भवकाश होता है कि 'सत् कया है' और
रत् षया ? दन्तु धनुभव विद्वानों से इस सम्बन्ध में कुछ
नियम निश्चित कर दिये हैं। उत नियमों के भ्रनुकूल प्राचरण
फरने से मानव स्वयं भी सुत्री रह सकता है श्ौर समाज को
भी सुखी बना सकता है । कृद नियम इस प्रकार हैं :
“व्यास्त-रचित भ्ररह पुराणो मं तत्व की केवल दौ वाते
है--दूसरी को सुखी करना, उनके साथ भलाई करना ही
User Reviews
No Reviews | Add Yours...