आध्यात्मिक सोपान | Adhyaatmik Sopaan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
338
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आध्यात्मिक सोपान ! [९
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च, इसी मवक्री सावना करनेसे तू जच भावनासे मी अतीत हो-
जायगा तव स्वय खाप ठहूरनेसे एक एसे आनन्दको पायगाजो
सपारातीत भावनाको निरतरं अनुभवमें आदा है | इप्र जानदके
योगीको यह सपार कुक सी इुःखदायी नदीं है । ब्त, हे वत्र !
यदि सुखी होना चाह्ष्ता है तो तू अपनी परिणतिमें ही विश्र।म कर |
४)
परम दयांलु श्रीगुरु शिप्यको उपदेश करते है-हे मज्यनीव !
ज्ू प्रस्नन्न हो,और मन लगाऋर मेरा उपदेश सुन | तेरे शरीरके भीतर
जो एक जाननेवालछा पदाथ है उसे ही भत्मा या जीव कहते हैं |
यह न कभी उत्पन्न हुआ है न कभी नष्ट होगा। यह अनादि अन-
नव जविनाशी है, अपनी सत्ता मन्य प्व नीरवे निराली रखता
है।यह न कभी किप्तीसे मिला हुआ था न कभी किप्तीसे मिलेया।
इसका संघार इप्तहीके साथ दे। यह आत्मा अपनी कर्मंगधरूप स-
एिको आप ही बनाता दे इससे ब्रह्मा है, अपने कमेके फडलोंक्रो आप
दी भोगता हुमा सपनी कर्म व कर्मसे उत्पन्न हुईं सप्टिको पाछता
है इससे विष्णु है । तथा यह आप ही अपने दी मोक्ष पुरुषाथसे
सब कर्मोको नष्टकर शुद्ध मुक होता हुआ अपनी खटिका आष
सहार करता है इससे यदी रुद्र या महेश दै । यदह एकद्रन्य दोकरं
भी तीन स्वरूप है | यह गणोंके सहभावीपनेसे प्रोग्य, पर्यायोक्रे
उत्पन्न व विनाश होनेसे उत्पाद व्ययरूप है अर्थात इस्त तीन स्व-
भावकी अपेक्षासे भी ब्रह्म, विष्णु, महेश स्वरूप है | हरएक जीव
टक दूपरेसे इतना भिन्न है कि एक पतिपत्नि जन्मभर प्रेंमसे रहे हुए
अदि पति सम्यग्दछी दे तो वह स्वै नाता दै, यडि स्री मिध्य्ात्व
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