आध्यात्मिक सोपान | Adhyaatmik Sopaan

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Adhyaatmik Sopaan by शीतलप्रसादजी - Sheetalprasadji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आध्यात्मिक सोपान ! [९ ~~~ -~--~------~-----~------------~------~-~-~----~-----------------~--- ~~ ३० ० न ७५७०0 ५+ ५० च, इसी मवक्री सावना करनेसे तू जच भावनासे मी अतीत हो- जायगा तव स्वय खाप ठहूरनेसे एक एसे आनन्दको पायगाजो सपारातीत भावनाको निरतरं अनुभवमें आदा है | इप्र जानदके योगीको यह सपार कुक सी इुःखदायी नदीं है । ब्त, हे वत्र ! यदि सुखी होना चाह्ष्ता है तो तू अपनी परिणतिमें ही विश्र।म कर | ४) परम दयांलु श्रीगुरु शिप्यको उपदेश करते है-हे मज्यनीव ! ज्ू प्रस्नन्न हो,और मन लगाऋर मेरा उपदेश सुन | तेरे शरीरके भीतर जो एक जाननेवालछा पदाथ है उसे ही भत्मा या जीव कहते हैं | यह न कभी उत्पन्न हुआ है न कभी नष्ट होगा। यह अनादि अन- नव जविनाशी है, अपनी सत्ता मन्य प्व नीरवे निराली रखता है।यह न कभी किप्तीसे मिला हुआ था न कभी किप्तीसे मिलेया। इसका संघार इप्तहीके साथ दे। यह आत्मा अपनी कर्मंगधरूप स- एिको आप ही बनाता दे इससे ब्रह्मा है, अपने कमेके फडलोंक्रो आप दी भोगता हुमा सपनी कर्म व कर्मसे उत्पन्न हुईं सप्टिको पाछता है इससे विष्णु है । तथा यह आप ही अपने दी मोक्ष पुरुषाथसे सब कर्मोको नष्टकर शुद्ध मुक होता हुआ अपनी खटिका आष सहार करता है इससे यदी रुद्र या महेश दै । यदह एकद्रन्य दोकरं भी तीन स्वरूप है | यह गणोंके सहभावीपनेसे प्रोग्य, पर्यायोक्रे उत्पन्न व विनाश होनेसे उत्पाद व्ययरूप है अर्थात इस्त तीन स्व- भावकी अपेक्षासे भी ब्रह्म, विष्णु, महेश स्वरूप है | हरएक जीव टक दूपरेसे इतना भिन्न है कि एक पतिपत्नि जन्मभर प्रेंमसे रहे हुए अदि पति सम्यग्दछी दे तो वह स्वै नाता दै, यडि स्री मिध्य्ात्व




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