परिग्रह परिमाण व्रत | Parigrah Pariman Vrat
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
156
श्रेणी :
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No Information available about सेठ ताराचंदजी गेखड़ा - Seth Taarachandji Gekhada
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)` १३ | ... .: 1: इच्छा-मूर्का
' देखते हैं, कि इच्छा और मूंछी का जन्म कैसे होता दै; तथा इनका
स्वरूप केंसा है ।
` - संसार जन्म छेने वाले प्राणी कर्मलिप्त' होते हैं। यदि
'कर्मलिप्त न हों, तो संसार में जन्म द्वी न छेना पड़ें। यद्द वात
: दूसरी है, कि कोई जीव कर्मों से कम छिप्त है और कोई अधिक
लिप्त है, लेकिन जो संसार में जन्मा है वह क्मलिप्त अवश्य है।
कमलिप्त होने के कारण, आत्मा अपने स्वरूप को सदी जानता,
अथवा जानता भी है तो विश्वास था इृढ़ता नहीं रखता । आत्मा,
. सचिदानन्द स्वरूप है। यह सतः र्यत सदा सदने वाला विद”
अथात चेतन्य रूप और “आनन्द अथोत सुख-निधान है। यह
स्वय॑ सुख रूप है, फिर भी कममंदिप्त होने के कारण अपने में
रहा हुआ सुर्ख नहीं देखता, स्वयं में जो खुख है उस पर विश्वास
` नदरी करता, छेकिन चाहता है सुख ही । इसलिए जिस प्रकार स्वयं
की नाभि मदी सुगन्ध देने वाटी कस्तूरी होने पर भी; ` मृग, घास
फूस को सूँघ २ करं उसमे सुगन्ध खोंजाता दै, उसी प्रकार आत्मा भी
स्वयं में रह हुए छुख को भूल कर दृश्यमान जंगत में सुख मानने
लगता है ¡ ' ददयमाने जगत में सुख है, यह समझ कर आत्म बुद्धि
' को, और बुद्धि मन को प्रसितं करती 2, ` तथा मन उस सुख को
'ग्राप्त करन के लिए चंचछ हो उठता है। इस प्रकार मन मं
सांसारिक पदार्थों की इच्छा उत्पन्न होती । अथात बाह्य जगतः
কাছ
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