मुक्ति का मार्ग | Mukti Ka Marg

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Mukti Ka Marg by श्री कानजी स्वामी - Shree Kanji Swami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रवचन पहला ५ भाव से विरुद्ध भाव कर रहद्दा ओर इसीण्यि आठ कर्मो काबध हाता हैं, तथा आकुछता का भाग किया करता है। यदि वह स्वभाव का भान करके ओर स्वभाव से विरुद्ध जा राग्टेप के भाव द उनका नाश करे तो सव कम নুহ হালা ओर दुख मिटकर सुख द्वाजाय । जा पर से सुख प्राप्त करना चादता है वष्ट मूढ दै আছ मानना मूठता है कि किसी बड़ी सभामे मेरा जादर हुआ इसलिये ठीक हुआ है । मान अपमान से कहद्दीं आत्मा की शाति थेडे हो होने वाली है ९ राजा इत्यादिक के बहुतसे आदमी राज द्रवारमे खमा खमा (मुजरा देकर) करते हैं, किन्तु आंख बद्‌ हनि पर उसमे से क्या बाकी रहता है? क्या इसमे सचयुच कदी सुख & ! सुख ता स्व॑ कमे के नाश से पैदा देता हे। व्यथः कीश्षक्ति-बङ ऊगानेसे प्रगट नदीं देता) ताला खालने के लिये शक्ति या बल की आवश्यकता नहीं, हथेड़े से ताछा नहीं खुलता किन्तु दुट जाता हैं और यदि युक्ति पूर्वक चावी लूगाई जाय ते बह सुगसता से जरदी खुल जाता है। इसीग्रकार आठ कर्मो' का नाश किये बिना अर्थात्‌ विकारीभावां का नाश किये बिना व्यर्थ के बलसे सुख प्रगट नहीं दवाता । “ सत्य फे समझने की क्‍या आवश्यकता है, खूब महिनत करे। उससे सुख प्रगट दह जायगा इसप्रकार के व्यर्थ के बल से किसी का झुख प्रगट লছাঁ ইালা। जिसका जे। स्वभाव दा उसे यदि बेसा द्वी समझे जेंसा कि है ते वह प्रगट द्वागा। जेसे यदि भावनगर जाना हे। ते भावनगर का रास्ता जानना देता है, किन्तु “ रास्ता जानने की




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