अणुव्रत जीवन दर्शन | Anuvrat Jeevan Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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त्गुपरत -श्रन्दूहत भतुप्य अपनी देहिक स्वा स বনি द| उफ दतिया भी वहिर्गामी हैं। शुद्ध, रए, रमे, गंध, शरण थादि १, द्धक दिप्वतो पधि हष श्रीर्‌ हे मतद দি মনা 7 द शान्तिको बाहरी प्रोता ह। प्र्‌ पा करते समय वह यृ জানা है कि ठस पार्थिव आवरण की নরম চলত জার और भी है जो बने ही आंखों का पप्र ह तहां शनि ख निए नव साम्राश्य है एवं सुख वा খনন गंगा आटा हू। स्म्ते बॉतिरागियां न देखा है, आप मदो मे वाता ई । उपे नो वे शाते हैं, श्प ए श्ात्नाक देया | *व्रमृत को द्रुक्‌ विरता ही मनुष्य हू जे अपने फो बरहर से चन्द्र $ श्रोर জানা ह ( अत्ता सुप्य गो अन्ततुस बनाने फा हो एक सही अनुष्ठान है। वह इस विश्वाय पर आगे बढ £ कि मनुष्य व्यो-ज्यों अन्त खी बनता जायेगा त्यो उसकी वग्ननिक च साय বাস खयं तिरो होगी जागो । उदृहरणथं-शरशु्ररी या दुसरे श्र अत्तमु सी ध्यत्त भी अपनी जीवन धारणा के लिय प्रायेभा ए ह शठम्‌ मही जायेगा कि उस कारए से दूसरे भूखे रहे जगें। वह दर फे हिस्से को दय सं करके २ छोड़ेगा | वह पारिवारिक दायि पे त्वि धन सप्रे मी श्ण प्र द +-पमपिवप धष्पगयणण्‌ भरं किंवानि व्यतृरत्‌ रस्म तसाद, परं पश्यति नामरमे । किप्‌ पीए्यमायानमपीन्‌ पय परपुरशत्वमि्त्‌ । -कृटोपतिष्टु |




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