समकित सार | Samkit Saar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समकित खार | { १५ ) इस ओर ध्यानदे, तो वे भी इसपर पश्चाताप प्रकट किये चिना कभी न रहेंगे, कि क्‍या साधु के जीवन और कर्तव्य की, पेसी निन्द्नीय ६सतक लिख करके द्वी समाप्ति द्वोजानी चाहिये ? फिर जस रल प्रमा का केष छदन नही कर सकता | परदीप्त प्रकाश म्र अन्धकार का आभास देखने का कोद दठ घममौ पन केर, तो बद भो हटात्‌ श्प मुद की साता ह । ठीक उसी प्रकार, तरुणाई छी तङ्ग घाटी भे उतरे इः, मद्‌ विह्वल परुष के मातग, मनको भी, कोर विरला दी सममा सकता है ) इतने पर यदि उसे विध्व के समान चंचला लच्मी का और भी साथ मिलगया । तो फिर तो डल के भध पतन का पूरा ही खामान समभना चाहिये । फिर, तरुणाई की तरल-तरदइ्वायमान तटनी में उतराये इष मदेन्मत्त पुरुषौ कोए, उनके श्रपने धन के मद्माते पन में, यह भी क्‍यों और कच জু पड़ने लगा, कि-“हमारी इस यौवन ओर घन की आंधी में, किसी साथ नाम धारी महापुरुष ( १ ) के केवल इसारा मात्र कर दने से, जो, या हम अधिवेक पूर्ण कार्यों के मैदान में कूद पड़ते हैं, उनका क्या दुष्परिणाम दोगा, उनेख कौन कौनसी श्चाने बाली श्ाप- त्यो का सामना हमे करना पेना ? उनके कारण ह्मे यश भिजेया, या स्वयं इम ही अपयश्‌ के घाट, लोक-निन्वा, श्रात्म धिक्षार श्नार चयार की प्रचरड धारा मे भवादित होने लगैगे; और वे कार्य हमार कुठुम्ब तथा अन्य सम्वन्धी परिधारो की उन्नति में किस प्रकार बाधक बनेंग, या उनके लिये विधातक सिद्ध हग १ आदि।” फिर, जैसे पवन अपने प्रचड बेगले शुष्क पत्तों को स्वेच्छानलार सुदूर लेजाकर गिरा मारता है, उसी प्रकार, यदि किसी पुरुष को प्रकृति भे शास्त्र




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