श्रीद्वारकानाथजी के प्राकट्य की वार्ता | Shreedwarkanathji Ke Praktay Ki Varta

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Shreedwarkanathji Ke Praktay Ki Varta by लल्लूभाई छगनलाल देसाई - Lallubhai Chaganlal Desai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम उल्लास | | ই में कुण्डल, श्वेत, रक्त, कमल की चनमाला श्रीकंठ में धारण क्रिये भए “ विरजोम्पर '! अर्थाद्‌ वीगस की अधिकता प्रदिषादित कखििशरे अवर व्व ( मल्लङछ ) धारण किये भण; श्री प्रभु ने उन्हें दशन दिये । सृष्टि रचनो श्रमसाध्य है, ताज चीरता-द्योतनाथ यह वीर-पेप घाग्ण ड्ियो, यह अवांतर अर्थ है। मुख्य अथे ।--पुष्टि में “ साक्षान्मन्यथ-मत्मथ। ” अर्थात्‌ काम कौ ९ मै विजय कर अपनी अनच्युतता-प्रगटाये मस्लकाछ धारण किये हं । सो शोक :-- स तं विरजमकमि सितप्मत्यरुस्रजम्‌ । स्निरनीरालकन्रातवक्तराव्जं विरजाम्बरम्‌ ॥९॥ किरीटिने कुण्डकिनि शङ्खचक्र णदाधरम्‌ । सवेतोतयलक्रीडनक मन म्पशसम्मितेक्षणम्‌ ॥१०॥ ( भागवत सक्ुं० ३ अ० २१ ) कर्दम ऋषि के ऐसे स्वरूप के साक्षाव दशन दिए, और स्वायभ्रव मनु की पुत्री देवहूति से विवाह करिवे की आज्ञा करी । वाद में कपिलदेवजी के अवृताररूप आप ही पुत्रस्य प्रगट मए इत्यादि कथा सविस्तर श्रीभागवत में प्रसिद्ध है । वोही श्रीद्ास्काधीशजी को स्वरूप मूर्ति-रूप कदम प्रजापति तथा देवहूति के यहेँ। विन्दुसरोबर पर बिराज़तों हतों । फेर जब कऋषिलदेवत्ी के दाग देवह तिज्नी कौ मोक्ष भयो, तथ पीछे यह स्वरूप वा विन्दुपरोवः में शो । यह वचिन्दुपरोषर णिद्ध- क्षेत्र में सरखतीजी सूँ पेष्टित दै, ओर पक्षात्‌ मावराच्‌ के हष फे जघ्नु [ ओंष्टन ] की वद सू प्रगट भगो है। सो शलोफ ₹-- यस्िन्भगवतो नेनतरान्न्यपतन्नश्रपिन्द्वः । कृपया संपरीतस्य प्रपतनोितया म॒दाम्‌ । ३८ ॥ तद्रे भिन्दुखरो नाम सरस्वत्या परिल्पुतम्‌ । पुण्य रिवामृतजरः महर्षिगणसेत्रितम्‌ ॥ ६९ ॥ मार त° स्के० २१अ० अपने शरण आए भए भक्त के उपर सपू्णं कृपा फौ दान कर्ती खत शरी भग्रान्‌ के -नेवन मेंस हपंके प्रेमाश्रु भिरे, वो ही विन्दुपरोवर्‌ नामक कल्याणकारी पुण्य तीथे है । নষ্টা श्रीकपिर्देवजी के शिप्यनमे सू एकं व्राह्मण शिष्य म्दतो। बाकी লাম देवशर्मा हतो । वाकौ पुत्र विष्णुशर्मा हतो। ये दोनों पिता-पुत्र मदात्‌ पवित्र कर्मनिष्ठ हते। इनके ममयान्तर में श्रीप्रत्रु द्राकाधीश ঈ स्वप्न मे आज्ञा करी




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