ग़रीब और अमीर पुस्तकें | Garib Aur Amir Pustaken

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Garib Aur Amir Pustaken by राम नारायण - Ram Narayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जन वे मिलीं १३ कहा--यही अख़बारोंमें पढ़ छिया था ।! और जाँखों ही-आाँखेंमें सुसकराते-से पूछा--'आाखिर आप घर और बाहरके इन सब कार्यों का समन्वय कैसे साथ छेती हैं ९! ज़रा गम्भीर होते-ले उसने कहा---अपना तो जीवन ही सावेजनिक है बहन ! वैसे हम तीन बहिनें हैं । सबसे बढ़ी जो पढ़नेम तेज थी वह एम० ए० करके लेक्‍्चरार हो गयी । दूसरी जो व्यवहार-कुशछू थी वह मैट्रिक करके घर-गिरस्ती संभाले है। और अपनने तो बहन ! बजाय पठनेके शुरूसे हीं सेवा-कार्य अपना लिया है| और, इसके चलते यह हालत है कि सभा, स्वागत और भाषणोंसे फुरसत ही नहीं मिरूती । कमी एक दी दिनम अनेको समाम को प्रेसाइड करना होता है। জী कमी, एक ही सभा-सण्डपर्मं अनेकों पर-पुरुषोंके साथ बड़ी शत तक बैठना होता है। कसी লাহাব লাল पर अनचाहे व्यक्तियोंके हाथों माला पदिननीं होती है, तो कभी फोटोके नाम पर जाने किन्हें, जाने कैसे-कैसे पोज देने होते हैं। कभी दिनसे खुली सभा, तो कभी रातमें गुप्त बेठक ! कभी पर्रम खुला वक्तव्य, तो कभी कूटनीतिज्षोंसे गुप्त वार्ता । कसी पन्न- प्रतिनिधियोंसे घर पर घ्ुलाकात, वो कभी यात्रा पर जांच-कमीशनके साथ ! ये सव तो जीवनके अभिन्न अंग बन चुके हैं बहन !? पूछा-- तुम्हारे इन सब कार्योसे उन्हें कोई एतराज नदीं होता वे बोलीं--इसमें एत्तराज की कोन वात १ फिर, में हरबार डनके प्रति ईमानदारी की शपथ जो छे लेती हूँ !! और चह कहती ही गयी-- तुम तो जानती ही हो बहन ! इस सार्वजनिक जीवनके चलते, खासकर खनावेकर दिनो, जने को, जाने कितनोके सम्पकंमे आना होता है । तव ऐसा हो-हज्ञा मचता है कि कौन सच है और कौन ग़रूत इसका कुछ पता हो नही चलता | अच्छे-अच्छोंके सन फिसल जाते हैं, और चे अपनी को छोड़, दूसरी पार्टियों को गले रूगाना चाहते है। ऐसेमें यदि जरा भी फिसले, तो गये। नहीं तो, हर जीतके बाद उनके प्रति




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