वीर शासन के प्रभावक आचार्य | Veer Shasan Ke Prabhavak Acharya

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Veer Shasan Ke Prabhavak Aacharya (1975) Ac 6957 by कस्तूरचंद कासलीवाल - Kasturchand Kasleeval

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मात्र समझ लिया जाता है किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि ये उदाहरण निरन्तर भोगोपभोगों मे आसक्त सामान्य छोगों के छिए एक सर्वथा भिन्न आत्महितकारी मार्ग का दर्शन कराते हैं । राजसम्मान जैन आचार्यों की विभिन्न लोकहितकारी प्रवृत्तियो से प्रभावित होकर अनेक राजाओं ने समय-समय पर उनके उपदेश सुने तथा दानों द्वारा उनके ज्ञानप्रसारादि कार्यों में सक्रिय सहयोग दिया । राजा श्रेणिक और अजातशबत्रु द्वारा गौतम और सुधर्म के सम्मान की कथाएं पुराणप्रसिद्ध है । खन्द्रगुप्त ने भद्बाहु से और सम्प्रति ने सुहस्ति से धर्मकार्यों की प्रेरणा प्राप्त की । शक राजाओ ने फालक के अनुरोध पर अत्याचारी गर्दभिल्ल का नाश किया । सातवाहन कुल के राजाओं ने कालक और पादलिप्त का सम्मान किया। विक्रमादित्य सिडसेन से और दुविनीत पृज्यपाद से प्रभावित थे । गंगवंश- स्थापक माधववर्मा सिंहनन्दि के शिष्य थे। इनके वंशजों ने भी वीरदेव आदि अनेक आचार्यों को दानादि से सम्मानित किया। चालुक्य वंश के राजाभो ने जिननन्दि, प्रभाचन्द्र, रविकीति आदि के धर्मकार्यो मे सहयोग दिया । हर्ष राजा की सभा में मान- तुग सम्मानित हए । राष्ट्रकूट वंश के राजाओं की सभाओ मे अकरंकदेव, जिनसेन, उप्रादित्य आदि कौ वाणी मुखरित हई । कर्णाटक मे होयसरु वश तथा गुजरात में चोलुक्य वश का समय शिल्प और साहित्य की समृद्धि से परिपूर्ण रहा, इस छाल के आचार्यों के उल्लेखों की संख्या सैकडो में पहुँचती है । वादविजय प्राचीन भारत के विभिन्न धाभिक सम्प्रदायों ने अपने-अपने मत के समर्थन और अन्य मतो के ख़ण्डन के लिए तकशास्त्र का व्यापक उपयोग किया । ऐसे वादविवाद तब विज्ञेष महत्त्वपूर्ण ए जब विभिन्न राजाओं की सभाओं में संस्कृत को प्रतिष्ठा मिरी ॥ जैन दर्शन अपने आपमे वाद को महत्त्व नहीं देता--उसका उद्देश्य तो विभिन्न वादों में यथार्थ तत्त्वज्ञान द्वारा संवाद स्थापित करना हैं। किन्तु अन्य सम्प्रदायों द्वारा वाद में विजय को सामाजिक लाभ का साधन बनाया गया तब समाज-गौरव को रक्षा के लिए आवश्यक होने पर जैन आचार्यों ने भी वादसभाओ में भाग लिया और इसमे उन्हें सफलता भी अच्छी मिली । समन्तभद्र, सिद्सेन, मल्लवादी, अकलंक, हरिभद्र, विद्या- नन्‍्द, वादिराज, प्रमाचन्द्र, शान्तिसुरि, देवसूरि आदि की जीवनकथाओ से यह स्पष्ट होता है 1 शिल्पसमृद्धि वीतराग भाव की साधना जैन परम्परा का लक्ष्य रहा है। सुशिक्षित और अशिक्षित दोनो के लिए इस साधना का एक प्रभावी मार्ग है जिनबिम्बों का दर्शन । इसलिए समय-समय पर आचार्यों ने जिनमूर्तियों और मन्दिरों के निर्माण का उपदेश प्राक्कथने च




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