श्री रामचरितमानस सिद्धांत तिलक समेत पंचम सोपान सुंदरकांड | Shri Ramcharit Manas Sidhant Tilak khand-iii Sunder lanka Aur Uttarkand

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Shri Ramcharit Manas Sidhant Tilak khand-iii Sunder lanka Aur Uttarkand by गोस्वामी तुलसीदास - Goswami Tulsidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुंदरकाएड ] १८१९ ( दीश। २ (२) बदन पइठि पुनि * ”--पसने भपने मुख में पैठरर दी जाने फे लिये कद्दा, उसपर श्रीइलुमानुधी ने जो 'पैठिहर भाई' कहा थ', यहाँ मुख में पैठकर एन्दोंने उसी की पूर्ति की दे । 'पुनि' का भाष यह कि निघर से पैठे, उधर हो से निकल भी भाये। “माँगा विदा तादि सिर नावा ह-- शीइनुमानजी ने पदले दी इसे साम-नीवि के अनुघार 'माई' कटकर मार्ग माँगा था, जव इघने शत्त रक्खी, तब श्रापने एदककी पूर्ति कर दी और फिर एसी भाव से शिर भी नवाया घर विदा माँपी । इसपर सुरसा ने प्रसन्न होकर झागे वर दिया । दि सुरसा ने ऐसी परीक्षा इसलिये को कि लंका में इन्हें अति लघु रूप से प्रवेश करके श्रीजानफीजी को सोजना दोगा 'औौर विशाल रूप से रनको भरोस। देना 'मोर राचषसों से युद्ध मो करना होगा । (३) 'मोदि सुरन्द जेदि'”*”--यहदीँ सुरसा श्रपनी स्रफाई दे रदी दै कि मैं देववा्भों के भेजने से झापकी यल-चुद्धि की परीक्षा के लिये दो भाई थी, राम-झार्य में घिन्न ढाकने को नदीं। परीक्षा! के लिये ही मैंने-'दीन्द झद्दारा' झादि भयकारी वचन भी कहे थे | (४१ 'राम-काज सब करिदटू *”-श्रीइजुमादजो ने यदो झपना शभोष्ट भी कहा था; यथा -- “राम काज करि फिरि मीं आवर**” कर पप्ी की झाशिप भी इसने दी । “वुस्द बकनवुद्धि निघान'--भाव यह कि बक्न भौर घुद्धि के बिना राम-हार्य॑ नहीं दो सकवा ; यथा--“जो नॉघइ सत घोजन सागर । करद सो राम काल सति झागर |” ( किन्दो० २८ ) ; इनके प्रणाम करने पर ससने भाशिप दी 'औौर इची से शीइनुमानजी को हपें भी हुआ, क्योंकि वदद देवी है, झतः उसके वचन सत्य हो दोंगे। शीइनुमानजी जय से समुद्र-किनारे से ले थे, दोच मैं, केवल यद्दीं पर यक्के ये, इसी से यदाँ से फिर चलना कद्दा गया है--'दरपि चले” इप इससे और भी हुआ कि विघ्नशारिणी भी थाशिप दैनेवाली दो गई ! निसिचरि एक सिंधु में रददईं। फरि माया नम के खग गदददे ॥१॥ जीच - जंतु जे गगन उड़ाई । जल विशषोकि तिन्‍्दके परिछाही ॥२॥ गद्दद छाँद सक सो. न छड़ाई । येदि विधि सदा गगनचर खाहे ॥६॥ सोइ' एल इनूमान कहूँ कोन्दा । ताखु कपट करपि लुरतहि चीन्हा ॥४॥ झयं-अपएक निशाचरी समुद्र में रददी थी, वद्द माया फरके झाकाश फे “ख्गो को पकड़ा करतो यी पशा जो जीव-जन्तु भाकाश में उड़ा करते, इनको परछीई जक में देखकर पकड़ क्षिया करती थी, जिससे घद्द उद़ नहीं सकता था; इसी तरद सदैव झाकाश में घतसेवारकों को खाया करती थी ॥र-श!! चद्दी छत श्रीदनुमानजी से किया, इस्रका कपट भीदनुमानओी ने तुरत दी जान लिया; श्र्थात्‌ घाया पकड़ जाने पर उसका सेद जान गये ॥४॥] विशेष---( १) 'निधचिचरि एक'***--मिशाघरी कहने का भाव यद हैं कि सुरसा देवी थी भौर यद राक्षसी दे । इसी थे झाकाशचारी निशाषघरों को ही केवल नहीं परुइ़ती थी, वरन्‌ प्रमी शीव- जन्तुभों को पकड़ लेठो थी । 'सिंघु मद रदई'--तीन स्थलों में जीव रददते द--नभ, जल भर स्थल । इनमें सुरखा नभ से भाई, यदद ( सिंदिका ) जल में रदती थी और झागे लंकिनी स्थत्त मैं मिलेगी । यह घिंदिका राष्ट्र की साता थी । श्रीगोस्ामीजी ने सुरसा, लंकिनी ओोर निज्नटा के नाम लिखे, पर इसका नाम स दिया, क्योकि




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