महापुराण भाग-२ | Mahapuran Bhaag-2

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Mahapuran Bhaag-2 by देवेन्द्रकुमार जैन - Devendra Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ महापुराण হাহানিক विचार भरतकी जिज्ञासाके समाधानमें ऋषभदेव कहते हैं कि जिसमें द्रव्य स्थित रहते हैं और दिखाई देते हैं यह लोक है, उसे किसीने नहीं बनाया, और न कोई उसे घारण किये हुए है। जड़-चेतनसे भरा हुआ वह स्वभावसे रचित है। किसी चोजकी रचनाके लिए उपादान और निमित्त कारणोंका होना जरूरी है। शिव, पृथ्वी आदि उपादान कारण कहाँ पाता है ? किसी रचनाके मूलमे इच्छा होती है, व्याधिहीन शिवमें इच्छा कैसे ? कुम्भकार अपनेसे भिन्न धड़ेकी रचना करता है--यानी रचनासे रचयिता भिन्न है। कर्ता-कर्म एक नहीं हो सकते, और कर्ताके बिना कर्म नहीं हो सकता | कुम्मकारके बिना यदि घड़ा बन सकता है तो मिट्टीका पिण्ड स्वयं कलश बन सकता है। जो सम्भव नहीं है। शिव यदि हस सुष्टिका परित्राण करता है तो उसने दानवोंकी रचना ही क्‍यों की ? यदि वत्मलताके कारण सुष्टिको रचना की जाती है तो सभीके छिए भोगोंकी रचना क्यों नहीं की गयो ? जद्द वच्छलेण जि कियउ लोठ । तो कि ण कियड सब्बहु विहोठ ॥ ऋषभ तीर्थंक्रके कथनका निष्कर्ष यह है कि लोक ( 59५०७ ) में जो कुछ स्थित और दुद्य है, बह स्वतः है, वह अनादि-अनन्त है। किसीको ( चाहे वह कोई हो ) उसका कर्ता मानना भानवी तर्केको अवहेलना करना है 1 राजा महाबलका मन्त्रो स्वयंबुद्धि अपने साथों मन्त्रियोके दार्शनिक भर्तों का खण्डन करता हुआ चार्वाक मतको भूतयोगवादी कहता है । उसका मुख्य तर्क है कि पृथ्वी आदि चार महाभूतोंके मेलसे जीवकी उत्पत्ति मानना ठोक नहीं । क्योकि एक तो इनमें परस्पर विरोध है, आग पानीको सोख लेती हैँ, और पानी आगको बुझा देता हे । दोनोंका मिश्रण अम्तम्भव हैं। जड़ और चेतन, दोनों भिन्न स्वरूपयाले है; भतः उनमें मिलाप सम्भव नहीं । क्षणिकवादका खण्डन करते हए स्वयंबुद्धि कहता है कि संसारमे अन्वयके बिना कोई वस्तु नही । जो चीज है ही नहीं उसका अस्तित्व क्षणमें बसे हो सकता है। यदि प्रत्येक वस्नु क्षणभंगुर है, तो वासना क्षणमें नाझको प्राप्त क्यों नहीं होतो ? अतः वस्तु क्षणजीवत्री नहीं है, प्रत्युत क्षणान्तर- गामी है! वस्तुतः जिसके रहनेसे काल परिणमन करता है, वह काल है। जहाँ वह काल है वह आकाश- तल है, गतिमें सहायक धर्म द्रव्य हे और स्थिरताम सहायक अधर्म द्रव्य हैं। पुदूगल अचेतन हैँ । सचेतनम ज्ञानका कारण जीव है। बिना जीवक पुद्गल न देख सक्ताहै, न चिल्ला सकता हं । अतः जडम क्रिया चेतनाफे बिना सम्भव नहीं हो सकती 1 प्रकृति-चित्रण नाभेयचरितके इस्न उत्तरार्ध भागमें प्रकृति-चित्रणका विस्तार नहीं है । काशी राज॑-पुत्री सुलोचनाके स्वयंवरके प्रसंगके पूर्व वसन्तका वर्णन है । सुलोचनाका रूप-चित्रण करते-क रते भन्त्रो कहता है-- लीलान्दोलनकी युक्तियाँ वसन्तके आगमनपर श्ीघक्र आ गयीं । वसन्तके आगमनका समय अंकुरित, कुसुमित और पलल्‍लचित होकर खिल उठा । जिस ऋतुमे चेतनाशून्य वृक्ष खिल उठते है वहाँ मनुष्यका मन बयों नहीं खिलेगा ? 'वियसंति अचेयण तरु वि जहि ) तहिं णरु कि णठ वियसइ ॥ 28-13. क॒वि प्रकृतिके एक-एक वृक्षकी हलचलका अंकन मानवी चेतनाके प्रतिक्रियाके द्वारा करता है : “यदि आमज्नवृक्ष कंटकित होता है तो वसन्‍्तकी शोभा उसे आलिगनमें बाँध छेती है। यदि चम्पकवृक्ष अकरोति




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