तेरापंथ - दिग्दर्शन | Terapanth - Digdarshan

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Terapanth - Digdarshan by मुनिश्री नगराज जी - Munishri Nagaraj Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ जत नहीं॥ वे अपने बालो का लुचत करत हूँ भोर इसरे लिएुकंनी उस्तरे भादि का उपयोग नहीं करत । माधुकरी सिक्षा जन যাঘুমা জী মিশা কী सम्बंध में शास्त्रवारों ने बहा है-- जहा दुम्मस्स पुप्तेसु ममरा झावियई रस भर्धात्‌ जैसे भ्रमर सुविवर्भित फूर्वों से योडा-योड़ा रस लेबर तुप्त रहता है उसी प्रवार साधु बहुत सारे घरा से थोडा-याश भोजन सेवर বৃদ্ধ তই) দিন साधु के मिला-प्रहण में भ्रहिगा का पूरा विवेक बरता जाता है। भपने लिए बना भाजत वे नहा लेते1 गृहस्थ भ्रपनें लिए बनाए गए भाजन से भ्पनी स्‍ावश्यक्ता वा सीमित कर जो भोजन देता है बढ़ी उतके लिए ग्राह्य है। यही नियम वस्त्र, पात्र, पुस्तक भ्ादि प्रत्येष' ग्राहम पदाय दैः निए लागू होवा है। मिद्धान्त पे बसे ता तरापय का समग्र सिद्धात जैन शागमों यों प्रमाण मानकर चलना है क्रि मी प्राचाय श्री मिशुयणी ने बडुत सारे विधया में जेन-शास्त्रा का ही एव गभीर विन्तव सगार वे सामने হালা , जहाँ तव सामाय लोक विम्तन सदसा हीं पद्व पाना। दयां य ्नूकम्पा ঈ বিঘয নঁততান বহা, লান বা करत है, बचाप्रो, पर सर्वाण विढ्‌ পীত কজাখঙ্ক নিতাল্ন “নল লাতা'লা হা ই1 মলাদী की यात तो स्वयं ही उसमें भतहित। हो जाती है। बचाभों के एकातिव उपतेश में भारत रहो वी बात भी पराच रूप से स्वीवृत हो जाती है वयांकि मारने वी प्रवत्ति न रहे तो बचाने का बोई अग्रय ही उपस्थित नहीं हाता।




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