विश्वभारती पत्रिका | Vishvbharti Patrika

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Vishvbharti Patrika  by कालिदास भट्टाचार्य - Kalidas Bhattacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कोकीछ ३ । ( मूल बंगला कषिता का हिन्दो में छायानुचाद ) भाज शाम को कोयल बोली, सुन कर मन को छगा जेसे तीन सो वर्ष पूर्व के बंगाल में होठ । उस काछ की उस स्निग्ध, यभीर आमपथ की ममता ने मान मेरी आँखों को भाँखुओं से सिक्त कर दिया। प्राणों से पूरणं ग्राम प्रदेश, धान से मरा भण्डार, घाट पर हँसी की मधुर तान से पूण नारी कण्ठ सुन रहा हूँ। संध्यासमय छत के ऊपर दक्षिण-हवा चल रही है। ताराषणों के भालोक में बेठे हुए कौन पुराण-कथा कह रहे हैं १ फूलों की बगिया के बेढ़े से हिना की सुगंध फेल रही है, कदम-शाखा की आड़ से चाँद ऊपर उठ रह है। उस समय बधू जुड़ा बाँध कर आँखों में काजल छगाती है । बीच बीच में बकुछ बन में कहीं कोयछ बोल पड़ती है । तीन सौ वर्ष कहाँ चले गए, तो मी सममत नहों पाया, भाज भी भो कोयल ! उसी माति के सुर में बोलती हो। घाट की ঘীন্তিঘাঁ ভুতু गई हैं, वह छत फट गई है, संध्या का चाँद आज किसके मुंह से रूपकथा सुनेगा १ शहर से घंटे को आवाज आ रही है, हाय | समय नहीं है--किस व्यर्थता म आन घर्ष करता चला जा रहा हू । क्याबधू अब मी माला गृूथती है ? क्‍या आँखों में काजल छगाती है १ उस अतीत के पुराने सुर में कोयछ क्‍यों पुकारती है १ [অন্ত বাণ লী ]




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