विश्वभारतीपत्रिका | Vishvbhartipatrika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
34 MB
कुल पष्ठ :
410
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)साहिंत्य ৬
*हैँ, परन्तु उनकी विशुद्ध खदिशिकता से हम कितने ही उत्तेजित क्यों न हों उन रचनाओं के देश-
काल |निदिष्ट हैं ; किन्तु सर्वे देश और सर्वे काल ने उनका वर्जन किया है इसलिये बे उसी प्रकार
निःसन्तान रह जायंगी जित प्रकार बंगाल के कुलीनो की अविवाहिता कन्याएं अपने व्यथे कुल-
गौख को केले के इक्ष को समर्पण करके हो जाया करती थीं । |
उपनिषद् में जहां ब्रह्म का स्वरूप अनन्तम् बताया गया है वहीं ब्रह्म के प्रकाश के संबंध
में कद्दा है--'आनन्दरूपमम्रतं यद्चिभाति /” यद्दी हमारी असली बात है। संसार यदि गारद-
घर द्वी होता तो भी सभी सिपाही मिलकर राजदण्ड की चोट मारकर भी हमें विचलित नहां कर
पाते। हम हड़ताल करके बेठ जाते, कहते कि हमारा खाना-पीना बंद हुआ, किन्तु में तो स्पष्ट ही
देख रहा हूं कि ऐसा नहीं है ; केवल चारों ओर तगादा ही नहीं चल रहा है ।
बार बार मेरा हृदय यहां मुग्घ हुआ है। इसकी क्या ज़रूरत थी ? टोटागढ़ के
জু के कारखाने में जो मज़दूर जुते रहते हैं वे मज्रौ पाते हैँ ज़रूर, पर उनके हृदय के लिये तो
किसीकों कोई परवा नहीं होती। फिर भी इस कारण कारखाने के कलपुजों में तो कोई
गड़बड़ी नहीं आई, वे तो ठीक ही चल रहे हैं। जो मालिक लोग ४००) फ्री सेकड़े के द्विसाब
से नफ़ा पाते हैं वे मन हरण करने के लिये तो एक पेसे की भी फ़िजूलखची नहीं करते ।
लेकिन संसार में मनोहरण की तो कोई सीमा नहों है। अर्थात् देखा जाता है कि यह केवल
बोपदेव के मुग्धबोध का सूत्रजाल नहीं है, यह काव्य है। अर्थात् इस जगत् मँ व्याकरण तो
दासो की भाँति पीछे पढ़ गया है और रस की लक्ष्मी आगे आगे चल रही हैं। तब इसके
प्रकाश में दंडी का दंड ही स्पष्ट हो रहा है या कवि का आनंद :
यह जो सूर्योदय है, आकाश से प्रृथ्वी तक सौंदये कौ बाढ़ है, इसके भीतर तो कहीं भी
ज़बदस्त सन््तरी की चपरास का कोई चिह्न भी नहीं दिखाई देता । भूख में एक तक़ाज़ा ज़रूर है
पर वह स्पष्ट हौ नही का मुहर दिया हुआ पदाथ है । (हां! भी है उस छ्ुघा मिटानेवाले फल
कै भीतर जिसे रसना सरस आग्रह के साथ 'आत्मीय! कहकर अभ्यथना कर लेती है। तो फिर
किसे हम अग्रयायी অলী আহ্ ভিউ अनुयायी ? व्याकरण को अग्रयायी समभ या काव्य
को १ पाकशाला को या भोज के निमंत्रण को ! ग्हखामी का उद्देश्य कहां प्रकाशित होता है!
वहां, जहां हाथ में निमंत्रणपत्र लिए और सिर पर छाता छगाए हम पैदल चलकर पहुचे या वहां
जहां हमारा पीढ़ा लगाया गया है ! ष्टि ओर सजेन तो एक ही बात हुईं। गहस्वामी ने
अपने आपको विसजन कर दिया है, मिठा दिया है, इसीलिये हमारे प्राण जुड़ा जाते हैं--इसी-
लिये दमारा हृदय कहता है--“आहा, कितना आनंद हुआ !'
शुक्रपक्ष की संध्या का आकाश चांदनी से उद्धासित हो रहा है--इस बात को जब किश्षी
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